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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा, “अच्छा गाता हूँ।” उठकर बरामदे में गया, धीरे-धीरे टहलने लगा।

उसकी गुनगुनाहट भीतर पहुँची तो रेखा का और भी अलसाया स्वर आया, “बाहर क्या प्रैक्टिस करने गये हो?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद भीतर गया तो देखा, रेखा वहीं कुरसी पर सो गयी है। वह दबे पाँव बाहर लौट आया। बरामदे के खम्भे के साथ पीठ टेक कर नीचे बैठ गया और चाँद देखने लगा। सहसा न जाने क्यों उदास विचार उसके मन में उमड़ने लगे - क्या थकान के कारण? वह फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगा।

...मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी!
किरण मर जायगी!

लाल हो के झलकेगा भोर का आलोक-
उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक।
प्यार की नीहार बूँद मूक झर जायगी!
इसी बीच किरण मर जायगी!

ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल,
कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की माल।
मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी-
इसी बीच किरण मर जायगी!

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