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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


नाव में उन्होंने नदी की इधर की शाखा पार की। नाव वाले ने पूछा, “यहीं ठहरूँ?”

“चाहे ठहरो चाहे डेढ़-दो घंटे में आ जाना।” भुवन ने लापरवाही से कहा।

“अच्छा, नहीं तो आप रुक्का दे देना।”

“अच्छा!”

सूखी स्वच्छ रेत पर आकर भुवन ने एक बार चारों ओर देखा, फिर ऊपर। फिर वह कहने को हुआ, “तारे कितने हैं” पर “ता” कह कर रुक गया; तारों की ओर रेखा का ध्यान न खींचना होगा!

रेखा ने कहा, “रुक क्यों गये?”

“कुछ नहीं, यों ही-”

“कहिए न?”

“नहीं।”

रेखा ने कहा, “आप तारों के बारे में कुछ कहने जा रहे थे।”

भुवन ने सकपका कर स्वीकार कर लिया।

“तो रुक क्यों गये?”

भुवन चुपचाप उसकी ओर देखने लगा।

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