ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“न-नहीं। हाँ, कुछ स्पेशल हो और आपकी इच्छा हो तो चलिए।”
“नहीं। तब नहीं। चलिए, नदी पर चलें-”
“पानी तो कुछ है नहीं-”
“पार बालू पर - टापू में या परले किनारे पर - काश कि दिल्ली में समुद्र होता।”
“सच, तब यहाँ इतनी क्षुद्रता का राज न होता शायद। कुछ तो सागर की महत्ता का प्रभाव पड़ता।”
“धन्य है आपका आशावाद! आप का ख़याल है बम्बई में कम क्षुद्रता है! कुछ कम होगी तो इसलिए कि शासन का केन्द्र दिल्ली है। शासन वहाँ ले जाइये तो”
“आप ठीक कहती हैं शायद। पर इस समय मैंने वैज्ञानिक बुद्धि को छुट्टी दे रखी है। अच्छी कल्पना में क्या हर्ज है?”
“तो और चलिए देखिए, मैं इसी को सागर का किनारा मान लेती हूँ; और रेत का टापू कोई सागर-द्वीप हो जाएगा जिस पर हम तूफान में बह कर आ लगे हैं - दो अजनबी जिन्हें साथ रहना है - कम-से-कम कुछ देर!”
“एक मिस राबिनसन क्रूसो, और उनका अनुगत मैन फ़्राइडे!”
“हाँ। और वहाँ पर किसी राक्षस के पदचिह्न मिले तो?”
“परवाह नहीं, मैन फ्राइडे जादू जानता है।”
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