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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैंने उसे सात-आठ बरस पढ़ाया था-मैट्रिक में। अब तो वह बी.ए. भी दो बरस हुए कर चुकी-अब मद्रास में है।”

“ओह।”

थोड़ी देर मौन रहा। फिर रेखा ने कहा, “कल रातवाली गाड़ी से चली जाऊँगी।” फिर कुछ नटखट भाव से : “लेकिन वहाँ मन न लगा तो कश्मीर आ जाऊँगी, कहे देती हूँ! आप भी खदेड़ देंगे यह कह कर कि हुकुम नहीं है?”

भुवन ने हँसकर कहा, “मैं क्या करूँगा, यह बताने का भी हुकुम नहीं है! लेकिन...” वह कुछ रुका, “आपकी गाड़ी कितने बजे जाती है?”

“नौ बजे शायद।”

“ओह।” भुवन कुछ सोच रहा है, देखकर रेखा ने पूछा, “क्यों, क्या बात है?”

“कुछ नहीं, कल मैं उधर भोजन करनेवाला था। पर कोई बात नहीं-मैं छुट्टी ले लूँगा।”

“नहीं, वैसा न कीजिए। मैं स्वयं स्टेशन पहुँच जाऊँगी।”

अन्त में यह निश्चय हुआ कि भुवन पहले आकर सात ही बजे रेखा को लेकर स्टेशन के वेटिंग-रूम में बिठा देगा; फिर जाकर गाड़ी के समय आ जाएगा और रेखा को गाड़ी पर सवार करा देगा। रेखा ने मान लिया। बोली, “स्टेशन तो मैं खुद भी आ सकती हूँ। पर विदा करने आप आवेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।”

थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “यह तो कल का तय हुआ। और अब?”

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