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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा, “आप अपने को ऐसे पुनः जिला लेती हैं, यही शायद मुझे आपकी सबसे पहली स्मृति है।”

रेखा ने सचेत होकर पूछा, “कैसे?”

भुवन ने लखनऊ की पार्टीवाली बात बता दी, जब उसने रेखा को सहसा विश्राम करते हुए देखा था। फिर कहा, “लेकिन तब उसका पूरा अभिप्राय नहीं समझ सका था'; अब समझता हूँ।”

रेखा ने विषय बदलते हुए कहा, “आपके जाने का कुछ निश्चय हुआ?”

“नहीं, अभी दो-चार दिन तो और हैं ही; फिर कश्मीर जाऊँगा। फिर वहाँ भी शायद दो-चार दिन रुकना पड़े।”

“मैं सोचती हूँ, मैं कल नैनीताल चली जाऊँ?”

“क्यों?”

“यहाँ अधिक रहूँगी, तो कदाचित् आपके काम में बाधक हूँगी - अब भी नहीं हूँ, यह मानना मुश्किल है। आप पता ही नहीं लगने देते।”

“यह बात बिलकुल नहीं है रेखा जी; मैं बिलकुल खाली हूँ। मित्र भी विशेषज्ञ नहीं हैं। प्रोफ़ेसर-समाज में तो ठहरा ही हूँ; परिचित और हैं, उनसे कभी मिल लेता हूँ।”

“कौन?”

“मेरी एक छात्रा थी-गौरा, उसके पिता।”

“छात्रा थी-आपको अभी पढ़ाते कितने वर्ष हुए हैं?”

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