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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“ओ-मैं समझ गयी। तारों से मैं नहीं डरती, भुवन जी, कभी नहीं डरी। और मैंने कहा था न, जो दुःस्वप्न कह लूँगी, उससे मुक्त हो जाऊँगी? अभी तक कह नहीं पायी थी, यही उसकी ताकत थी। अब-अब नहीं! आप कहिए तो तारे गिन डालूँ आकाश के?”

“न! गिनने से कम हो जाते हैं! और तारा एक भी कम करना कोई क्यों चाहेगा? न जाने कौन तारा किसका है?”

“और जो टूटते हैं सो?”

“फिर विज्ञान? टूटकर एक के दो बनते हैं। या बीस। तारे कभी कम हुए हैं आकाश में?”

रेखा इस नये भुवन को देखने लगी। फिर उसने कहा, “अच्छा, मैन फ़्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?”

भुवन का वह मूड बहुत छोटे क्षण के लिए लड़खड़ा गया...। न जाने क्यों उसे गौरा का वह पत्र याद आया जिसमें गौरा ने उसे बुलाया था- 'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती!' इण्टर के समय गौरा को उसने ब्राउनिंग की कुछ कविताएँ पढ़ायी थीं; पाठ्य कविताओं से आगे वे दोनों कुछ कविताएँ और भी पढ़ गये थे जिनमें एक का शीर्षक था “मेरा तारा”...लेकिन एक बहुत छोटे क्षण के लिए ही, फिर उसने कहा, “लो, क्या गलती हुई मुझसे - मैं तो उस पर लेबल लगाना ही भूल गया। अब क्या होगा, मिस राबिनसन? इतने बड़े आकाश में कैसे उसे ढूँढूँगा?” उसने ऐसा दयनीय चेहरा बनाया कि रेखा को हँसी आ गयी।

उसने दिलासे के स्वर में कहा, “कोई बात नहीं फ़्राइडे, तारा खुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।”

भुवन बालू में बैठ गया। बोला, “अच्छा, तारों की चिन्ता छोड़ें। इस टापू में ही रहना है, तो घर-वर बनाना चाहिए। रेखा जी, आपको बालू के घर बनाने आते हैं?”

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