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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

2


कुदसिया बाग़ में उन दिनों फूल लगभग नहीं होते, कोई फूल ही उन दिनों में नहीं होता सिवा वैजयन्ती के, जो चटक रंगीन चूनर ओढ़े बीबी शटल्लो बनी धूप में खड़ी रहती है। लेकिन खण्डहर पर चढ़ी हुई 'बेगमबैरिया' लता की छाँह सुहावनी थी। फूल इसमें भी कई तेज़ रंगों के भी होते हैं, पर इसकी लम्बी पतली बाँहों में, हवा में झूमते गुच्छा-गुच्छा फूलों में एक अल्हड़पन होता है जो वैजयन्ती के भूनिष्ठ आत्म-सन्तोष से सर्वथा भिन्न होता है...और फिर इस विशेष लता के फूल भी तेज़ रंग के नहीं थे, एक धूमिल गुलाबी रंग ही उनमें था जो पत्तियों के गहरे हरे रंग की उदासी कुछ कम कर देता था, बस।

भुवन नीचे घास पर कोहनी टेके बैठा बेंच पर बैठी रेखा को देख रहा था। रेखा पहले बेंच पर बैठ गयी थी; जब भुवन नीचे बैठा तो वह भी उतरने लगी पर भुवन ने कहा, “नहीं-नहीं, आप वहीं रहिए; इस बैकग्राउंड पर आपकी साड़ी बहुत सुन्दर दीखती है।” रेखा ने एक फीके कोकनी रंग की साड़ी पहन रखी थी, बेगमबैरिया के फूल उसका सन्तुलन कर रहे थे, मानो एक ही गीत दो स्वरों में गाया जा रहा हो, रेखा का मन्द, अन्तर्मुख और गहराई खोजता हुआ, लता का तार, बहिर्निवेदित और उड़ना चाहनेवाला...।

रेखा को एक आदत थी, सहसा, मानो अनजाने, उसका हाथ उठता और कनपटी के पास मानो कुछ खोजने लगता, फिर बालों की किसी छूटी हुई लट, कभी-कभी काल्पनिक ही लट! - को कानों के पीछे डालता हुआ धीरे-धीरे लौट आता। सारी क्रिया एक बड़े कोमल और आयासहीन ढंग से दुहरायी जाती थी। चलते हुए भी दो-चार बार भुवन ने लक्ष्य किया था, बाग़ में आने से पहले वे जमुना के किनारे-किनारे थोड़ा भटके थे और थोड़ी देर घाट की सीढ़ी पर पानी के निकट बैठे थे तब भी-तब बल्कि हाथ पानी में डुला कर रेखा ने कनपटियाँ भिगो ली थी...। वह मुद्रा बड़ी आकर्षक थी; रेखा की उँगलियाँ वैसी तो नहीं थी जिन्हें सुन्दरता का आदर्श माना जाता है - उनके जोड़ उभरे हुए थे और रूप-तत्त्व की अपेक्षा मनस्तत्त्व की ओर ही इंगित करते थे - पर वे थीं पतली और व्यंजना-पटु-संवेदनशील उँगलियाँ। अभी बैठे-बैठे उसका हाथ फिर उठा तो भुवन ने पूछा, “आप थक तो नहीं गयीं? हम लोग काफ़ी भटके।”

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