ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“देखिए आप को काम्प्लिमेंट देना भी नहीं आता न? कितने अच्छे हैं आप, जिसके साथ सतर्क नहीं रहना पड़ता!”
अबकी बार भुवन हँस दिया। पर क्यों, यह वह स्वयं नहीं जान पाया।
काफ़ी पीते-पीते रेखा ने पूछा, “भुवन जी, आपने पहाड़ जाने के लिए और किसी को आमन्त्रित नहीं किया?”
“नहीं तो। फिर मेरा जाना ही तो नहीं हुआ-”
“अच्छा, आप जहाँ रिसर्च के लिए जाना चाहते हैं वहाँ मैं आ जाऊँ तो आप के काम का बहुत हर्ज होगा?”
भुवन ने चौंक कर कहा, “वह तो एकदम बियाबान जंगल है रेखा जी। वहाँ”
“फिर भी-फ़र्ज कीजिए।”
“नहीं-आप ही हर्ज करना न चाहें तो खास नहीं होगा। इतना ही कि आपकी असुविधा का ध्यान हमेशा रहेगा।”
“और काम में बाधक होगा!” रेखा हँस दी। “ठीक है, मैं तो यों ही कह रही थी।”
वापस पहुँच कर रेखा ने नीचे ही कहा, “जीना चढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं यहीं से विदा लेती हूँ। मैं यही रहूँगी, आप तीसरे पहर जब भी आयें। मैं तैयार मिलूँगी।”
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