ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नहीं-मुझे तो पता ही नहीं लगा।”
“और रेत में भी चले - उससे बड़ी थकान होती है।”
“नहीं, मैं अभी और चल सकती हूँ। पर यहाँ बैठना भी बहुत मधुर है।”
भुवन हँस दिया। फिर एक लम्बा मौन रहा। दोनों आकाश को देखते रहे। मई का दिल्ली का आकाश - उसकी नीलिमा सभ्यता की भाप से मुरझा कर फीक़ी पड़ जाती है, और आकाश सभ्यता की तरह अपने ही रंग का ओप अपने पर नहीं चढ़ाता! पर प्रकृति के विभिन्न भावों की झाँई उसे नाना रंग दे जाती है, इस समय उसके आगे ताँबे के रंग का एक झीना-सा जाल था, जो धीरे-धीरे धुँधला पड़ रहा था।
रेखा ने कहा, “शहरों का आकाश भी क्या चरित्रहीन आकाश होता है - फिर गर्मियों में! यों मैं साँझ को घनी होते देखते घंटों बैठी रह सकती हूँ - पर गर्मियों में शहर में लगता है सबसे अच्छी दोपहर है - साँय-साँय सन्नाटा, धूप ऐसी कि चौंधिया दे, पर उस की चिलक ही जैसे दृश्य को माँज जाती है; सभ्यता के भीतर से मानव हृदय की स्तब्ध धड़कन तब सुनी जा सकती है...।”
भुवन कुछ नहीं बोला। रेखा का स्वर उसे अच्छा लग रहा था, उसकी गति मानो लययुक्त थी, एक भावाक्रान्त उतार-चढ़ाव मानो अलग से कहता था, “बात के अर्थ से अलग और भी अर्थ है मुझमें, अकथित, अकथ्य अभिप्राय, ज़रा कान देकर सुनो...”
रेखा ने ही फिर कहा, “यों तो पहाड़ पर, या सागर के किनारे ही आकाश देखना चाहिए, पर देहातों में और खास कर आख़िरी बरसात में - तब आकाश बोलता है, गाता है-कैसे-कैसे अर्थ-भरे गाने...शहर का आकाश - शहर का सूर्यास्त - जैसे ड्राइंग-रूम की बातचीत, सब कोई बोल रहे हैं लेकिन सब कोई जैसे छिपे हुए, जैसे अनुपस्थित, केवल स्वरों के रेकार्ड, केवल यन्त्र-लिखित उत्साह और आवेश!”
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