आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
सामने एक भला मार्ग हो और दूसरा बुरा तो यह निर्णय आसान है कि इस मार्ग पर चलना उचित है। पर जब दोनों ही मार्ग बुरे हैं तो क्या किया जाय? यह निश्चित करना कठिन है। इसी प्रकार अच्छे दो मार्गों में से किसे चुना जाय यह भी पेचीदा प्रश्न है। इन पेचीदा मार्गों को धर्म-संकट कहते हैं।
अब उन धर्म संकटों के बारे में विचार करना है जो स्वयं अपनी निज की समस्याओं के सम्बन्ध में उपस्थित होते हैं। हम बड़े परिश्रम से पैसा कमाते हैं फिर उस पैसे से कपड़े बनवा लेते हैं क्योंकि पैसे से कपड़ा अधिक लाभदायक है। शरीर को शीत-धूप से बचाने के लिए कपड़े पहनते हैं क्योंकि कपड़ों से शरीर रक्षा अधिक मूल्यवान है। शरीर सुख के लिए अन्य मूल्यवान पदार्थों को खर्च कर देते हैं कारण यही है कि वे मूल्यवान पदार्थ शरीर सुख के मुकाबले में हेटे जँचते हैं। लोग शरीर सुख की आराधना में लगे हुए हैं परन्तु एक बात भूल जाते हैं कि शरीर से भी ऊँची कोई वस्तु है। वस्तुत: आत्मा शरीर से ऊँची है। आत्मा के आनन्द के लिए शरीर या उसे प्राप्त होने वाले सभी सुख तुच्छ हैं। अपने दैनिक जीवन में पग-पग पर मनुष्य बहुत के लिए थोड़े का त्याग की नीति को अपनाता है परन्तु अन्तिम स्थान पर आकर वह सारी चौकड़ी भूल जाता है। जैसे शरीर सुख के लिए पैसे का त्याग किया जाता है, वैसे ही आत्म-सुख के लिए शरीर सुख का त्याग करने में लोग हिचकिचाते हैं। यही माया है।
पाठक इस बात को भली-भांति जानते हैं कि अन्याय, अनीति, स्वार्थ, अत्याचार, व्यभिचार, चोरी, हिंसा, छल, दम्भ, पाखण्ड, असत्य, अहंकार आदि से कोई व्यक्ति धन इकट्ठा कर सकता है, भोग पदार्थों का संचय कर सकता है इन्द्रियों को कुछ क्षणों तक गुदगुदा सकता है परन्तु आत्म-सन्तोष प्राप्त नहीं कर सकता। इन पाप कर्मों की आध्यात्मिक प्रतिक्रिया से जो असह्य भार अन्तःकरण के ऊपर जमा होता है उसमें दबी हुई आत्मा हर घड़ी कराहती रहती है और वेदना, उद्विग्नता एवं अशान्ति का अनुभव करती रहती है। पापी मनुष्य बाहर वालों को सुखी एवं भाग्यवान भले ही दिखाई पड़े परन्तु उसकी भीतरी स्थिति से परिचय करने वाले जानते हैं कि वह गरीब और अभावग्रस्त लोगों की अपेक्षा बहुत ही नीची श्रेणी का जीवन व्यतीत कर रहा है। सोते-जागते उसे घड़ी भर भी चैन नहीं, पाप वृत्तियाँ, पिशाचनियाँ उनके मन मरघट में खून भरे खप्पर पी-पीकर नाचती हैं और उस ताण्डव नृत्य को देख-देखकर पाप पीड़ित व्यक्ति की घिग्घी बँध जाती है। अपने रचे हुए कुम्भीपाक नरक में वह स्वयं ही बिलबिलाता है। अपनी खोदी हुई बैतरणी में वह स्वयं ही डूबता-उतराता रहता है। अशान्ति, हाहाकार, चिन्ता, व्याकुलता, उद्विग्नता बस यही उसका परिवार होता है। उन्हीं के बीच में वह जीवन को घुला देता है। आत्म-सन्तोष, आत्म-आनन्द को वह अभागा जान भी नहीं पाता।
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