आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
एक चरित्रवान व्यक्ति को देखिए वह ईमानदारी, सच्चाई, परोपकार, दया, उदारता, नम्रता, सहानुभूति, सेवा, सहायता, प्रेम, प्रसन्नता आदि उत्तमोत्तम पुण्य की भावनाओं को अपने में धारण किए हुए है। सच्चाई से भरा हुआ खरा आचरण करता है, उसके चरित्र पर उँगली उठाने का किसी को साहस नहीं होता। दूध के समान धवल, हिम के समान स्वच्छ, आचार और विचार रखने वाले मनुष्य की आत्मिक शान्ति का मुकाबला क्या कोई चक्रवर्ती सम्राट कर सकता है? शरीर को उसकी स्वाभाविक वस्तुऐं दाल, रोटी, दूध, तरकारी खाने को न दी जावें और अन्य जीवों के खाद्य पदार्थ घास, मिट्टी, कीड़े-मकोड़े खाने को सामने रख दिए जावें तो वह दुःख अनुभव करेगा एवं दिन-दिन दुर्बल होता जायगा। पाप कर्म मनुष्य योनि के उपयुक्त नहीं वरन् स्वान, सिंह, सर्प आदि नीच योनि वाले जीवों का आहार है। मानव का अन्तःकरण पाप कर्मों से प्रफुल्लित नहीं होता वरन् दिन-दिन दुःखी-दुर्बल होता जाता है। उसका स्वाभाविक भोजन वे आचार-विचार हैं जिन्हें सात्विक, पुण्यमय, निष्पाप, पवित्र एवं परमार्थ कहते हैं। इसी आहार से आत्मा की भूख बुझती है और बल प्राप्त करके वह अपनी महान् यात्रा को आगे बढ़ाता है।
एक ओर पाप कर्मों द्वारा शरीर सुखों की प्राप्ति होती है, दूसरी ओर पुण्य कर्मों द्वारा आत्म-सुख का लाभ होता है। विवेक बुद्धि कहती है 'बहुत के लिए, थोड़े का त्याग करो।' नाशवान् शरीर की क्षणिक लालसाओं को तृप्त करने की अपेक्षा स्थाई, अनन्त, सच्चे आत्म-सुख को प्राप्त करो। शरीर को भले ही कष्टों की स्थिति में रहना पड़े परन्तु सद्वृत्तियों द्वारा प्राप्त होने वाले सच्चे सुख को हाथ से मत जाने दो। ठीकरी को छोड़ो और अशर्फी को ग्रहण करो ''बहुत के लिए थोड़े का त्याग करो।''
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