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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


साम्प्रदायिक दंगे हमारे देश में आये दिन होते हैं, इनकी तह में कोई बड़ी भारी जटिल पेचीदगी नहीं होती किन्तु भावुकता का प्रवाह होता है। मुसलमान सोचता है कि नमाज के समय बाजा बजाने से खुदाबन्द करीम की तौहीन होती है। हिन्दू सोचता है कि रामचन्द्रजी की बारात का बाजा बन्द हो जाना ईश्वर का अपमान है। दोनों पक्ष खुदा की तौहीन और ईश्वर का अपमान न होने देने के लिए छुरी कटार लेकर निकल पड़ते हैं और खून से पृथ्वी लाल कर देते हैं। तत्वत: बाजे के कारण न तो ईश्वर का अपमान होता था और न खुदा की तौहीन, पर दोनों पक्ष अपनी-अपनी भाबुकता के प्रवाह में बह गये और छोटी घटना को ऐसा बड़ा समझने लगे मानो यही जीवन-मरण का प्रश्न है। यदि भावुकता की उड़ान पर विवेक का नियन्त्रण होता तो वह रक्तपात होने से बच जाता। मुहम्मद गोरी अपनी सेना के आगे गायों का झुण्ड करके बढ़ा। पृथ्वीराज ने गौओं पर हथियार चलाने की अपेक्षा पराजय होने की भावुकता अपना ली। चन्द गायें उस समय बच गईं पर आज उसी के फलस्वरूप मिनट-मिनट पर सहस्रों गायों की गर्दन पर छुरी साफ हो रही है। ईद की कुर्बानी पर एक गाय को लेकर दंगा हो जाता है, पर सूखे माँस के व्यापार में जो अगणित गौ-बध होता है उसकी ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती। इस प्रकार भावुकता के प्रवाह में सामने वाली छोटी बातों को तूल मिल जाता है और पीछे-पीछे रहने वाली जीवन-मरण की समस्या जहाँ की तहाँ उपेक्षित पड़ी रहती है।

उपरोक्त पंक्तियों में हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि धर्म ग्रन्थ, लोक मत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर धर्म संकट का सही हल निकालने में बहुत ही कम सहायता मिलती है और गड़बड़ में पड़ जाने की आशंका अधिक रहती है। हो सकता है कि सामने वाले दो मार्गों में से छोटी बात बड़ी मालूम पड़े और बड़ी का महत्व छोटा नजर आये। जैसे बालक के फोड़ा निकल रहा है उसे चिरवाना आवश्यक है। आपरेशन के चाकू को देखकर बालक भयभीत होकर करुण-क्रन्दन करता है, पिता की भावुकता उमड़ पड़ती है, वह बालक को अस्पताल से उठाकर यह कहकर चल देता है- ''इतना करुण रुदन मैं नहीं देख सकता।'' घर आने पर फोड़ा बढ़ता है, सड़ने पर पैर गल कर नष्ट हो जाता है बालक का जीवन निरर्थक हो जाता है। यहाँ तत्वज्ञानी की दृष्टि से पिता की वह भाबुकता अनुचित ठहरती है, जिसके प्रवाह में वह आपरेशन के समय बह गया था। यदि उस समय उसने धैर्य, विवेक और दूरदर्शिता से काम लिया होता तो बालक की जिन्दगी क्यों बर्बाद होती? पिता की सहृदयता पर किसी को आक्षेप नहीं, उसने जो किया था अच्छी भावना से किया था पर भावुकता की मात्रा विवेक से अधिक बढ़ जाने के कारण वह उचित मार्ग से भटक गया और अनिष्टकर परिणाम उपस्थित करने का हेतु बन गया। जब पिता अस्पताल से बच्चे को उठाकर लाया था तब चाहता तो अनेक ऐसे सूत्र, लोकोक्ति, उदाहरण, तर्क इकट्ठे कर सकता था जो उसके कार्य का औचित्य सिद्ध करने ही के पक्ष में होते।

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