उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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आलोक-प्रार्थिनी अपने कुटीर में दीपक बुझाकर बैठी रही। उसे आशा थी कि वातायन और द्वारों से राशि-राशि प्रभात का धवल आनन्द उसके प्रकोष्ठ में भर जायेगा; पर जब समय आया, किरणें फूटी, तब उसने अपने वातायनों, झरोखे और द्वारों को रुद्ध कर दिया। आँखें भी बन्द कर लीं। आलोक कहाँ से आये। वह चुपचाप पड़ी थी। उसके जीवन की अनन्त रजनी उसके चारों ओर घिरी थी।
लतिका ने जाकर द्वार खटखटाया। उद्धार की आशा में आज संघ भर में उत्साह था। यमुना हँसने की चेष्टा करती हुई बाहर आयी। लतिका ने कहा, 'चलोगी बहन यमुना, स्नान करने ?
'चलूँगी बहन, धोती ले लूँ।'
दोनों आश्रम से बाहर हुईं। चलते-चलते लतिका ने कहा, 'बहिन, सरला का दिन भगवान ने जैसे लौटाया, वैसे सबका लौटे। अहा, पचीसों बरस पर किसका लड़का लौटकर गोद में आया है।'
'सरला के धैर्य का फल है बहन। परन्तु सबका दिन लौटे, ऐसी तो भगवान की रचना नहीं देखी जाती। बहुत का दिन कभी न लौटने के लिए चला जाता है। विशेषकर स्त्रियों का मेरी रानी। जब मैं स्त्रियों के ऊपर दया दिखाने का उत्साह पुरुषों में देखती हूँ, तो जैसे कट जाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि वह सब कोलाहल, स्त्री-जाति की लज्जा की मेघमाला है, उनकी असहाय परिस्थिति का व्यंग्य-उपहास है।' यमुना ने कहा।
लतिका ने आश्चर्य से आँखें बड़ी करते हुए कहा, 'सच कहती हो बहन! जहाँ स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ पराधीनता का आन्दोलन है; और जहाँ ये सब माने हुए नियम हैं, वहाँ कौन सी अच्छी दशा है। यह झूठ है कि किसी विशेष समाज में स्त्रियों को कुछ विशेष सुविधा है। हाय-हाय, पुरुष यह नहीं जानते कि स्नेहमयी रमणी सुविधा नहीं चाहती, वह हृदय चाहती है; पर मन इतना भिन्न उपकरणों से बना हुआ है कि समझौते पर ही संसार के स्त्री-पुरुषों का व्यवहार चलता हुआ दिखाई देता है। इसका समाधान करने के लिए कोई नियम या संस्कृति असमर्थ है।'
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