उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
मंगल तो आश्चर्य चकित था। सब साहस बटोरकर उसने कहा, 'तो क्या सचमुच तुम्हीं मेरी माँ हो।'
तीनों के आनन्दाश्रु बाँध तोड़कर बहने लगे।
सरला ने गाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटी! तेरे भाग्य से आज मुझे मेरा खोया हुआ धन मिल गया!'
गाला गड़ी जा रही थी।
मंगल एक आनन्दप्रद कुतूहल से पुलकित हो उठा। उसने सरला के पैर पकड़कर कहा, 'मुझे तुमने क्यों छोड़ दिया था माँ ?
उसकी भावनाओं की सीमा न थी। कभी वह जीवन-भर के हिसाब को बराबर हुआ समझता, कभी उसे भान होता कि आज के संसार में मेरा जीवन प्रारम्भ हुआ है।
सरला ने कहा, 'मैं कितनी आशा में थी, यह तुम क्या जानोगे। तुमने तो अपनी माता के जीवित रहने की कल्पना भी न की होगी। पर भगवान की दया पर मेरा विश्वास था और उसने मेरी लाज रख ली।'
गाला भी उस हर्ष से वंचित न रही। उसने भी बहुत दिनों बाद अपनी हँसी को लौटाया। भण्डार में बैठी हुई नन्दो ने भी इस सम्वाद को सुना, वह चुपचाप रही। घण्टी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसके काम में हाथ बँटाने लगी।
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