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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'मुझे ही देखो न, मैं ईसाई-समाज की स्वतन्त्रता में अपने को सुरक्षित समझती थी; पर भला मेरा धन रहा। तभी तो हम स्त्रियों के भाग्य में लिखा है कि उड़कर भागते हुए पक्षी के पीछे चारा और पानी से भरा हुआ पिंजरा लिए घूमती रहें।'

यमुना ने कहा, 'कोई समाज और धर्म स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं। सब हृदय को कुचलने वाले क्रूर हैं। फिर भी समझती हूँ कि स्त्रियों का एक धर्म है, वह है आघात सहने की क्षमता रखना। दुर्दैव के विधान ने उनके लिए यही पूर्णता बना दी है। यह उनकी रचना है।'

दूर पर नन्दो और घण्टी जाती हुई दिखाई पड़ीं। लतिका, यमुना के साथ दोनों के पास जा पहुँची।

स्नान करते हुए घण्टी और लतिका एकत्र हो गयीं, और उसी तरह चाची और यमुना का एक जुटाव हुआ। यह आकस्मिक था। घण्टी ने अंजलि में जल लेकर लतिका से कहा, 'बहन! मैं अपराधिनी हूँ, मुझे क्षमा करोगी?'

लतिका ने कहा, 'बहन! हम लोगों का अपराध स्वयं दूर चला गया है। यह तो मैं जान गयी हूँ कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। हम दोनों एक ही स्थान पर पहुँचने वाली थीं; पर सम्भवतः थककर दोनों ही लौट आयीं। कोई पहुँच जाता, तो द्वेष की सम्भावना थी, ऐसा ही तो संसार का नियम है; पर अब तो हम दोनों एक-दूसरे को समझा सकती हैं, सन्तोष कर सकती हैं।'

घण्टी ने कहा, 'दूसरा उपाय नहीं है बहन। तो तुम मुझे क्षमा कर दो। आज से मुझे बहन कहकर बुलाओगी न।'

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