उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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कृष्णशरण की टेकरी ब्रज-भर में कुतूहल और सनसनी का केन्द्र बन रही थी।
निरंजन के सहयोग से उसमें नवजीवन का संचार होने लगा, कुछ ही दिनों से सरला और लतिका भी उस विश्राम-भवन में आ गयी थीं। लतिका बड़े चाव से वहाँ उपदेश सुनती।
सरला तो एक प्रधान महिला कार्यकर्त्री थी। उसके हृदय में नयी स्फूर्ति थी और शरीर में नये साहस का साहस का संचार था।
संघ में बड़ी सजीवता आ चली। इधर यमुना के अभियोग में भी हृदय प्रधान भाग ले रहा था, इसलिए बड़ी चहल-पहल रहती।
एक दिन वृन्दावन की गलियों में सब जगह बड़े-बड़े विज्ञापन चिपक रहे थे। उन्हें लोग भय और आश्चर्य से पढ़ने लगे-
हिन्दू-धर्म का सर्वसाधारण के लिए खुला हुआ द्वार
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों से भिन्न
(जो किसी विशेष कुल में जन्म लेने के कारण संसार में
सबसे अलग रहकर, निस्सार महत्ता में फँसे हैं)
एक नवीन हिन्दू जाति का संगठन कराने वाला सुदृढ़ केन्द्र, जिसका आदर्श प्राचीन है-
राम, कृष्ण, बुद्ध की आर्य संस्कृति का प्रचारक
वही
भारत संघ
सबको आमंत्रित करता है।
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