लोगों की राय
उपन्यास >>
कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
|
पुस्तक क्रमांक : 9701
|
आईएसबीएन :9781613014301 |
 |
 |
|
2 पाठकों को प्रिय
371 पाठक हैं
|
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'कार्य आरम्भ हो जाने दीजिए। गुरुदेव! तब यदि आप उसमें अपना निर्वाह न देखें, तो दूसरा विचार करें। इस कल्याण-धर्म के प्रचार में क्या आप ही विरोधी बनियेगा! मुझे जिस दिन आपने सेवाधर्म का उपदेश देकर वृन्दावन से निर्वासित किया था, उसी दिन से मैं इसके लिए उपाय खोज रहा था; किन्तु आज जब सुयोग उपस्थित हुआ, देवनिरंजन जी जैसा सहयोगी मिल गया, तब आप ही मुझे पीछे हटने को कह रहे हैं।'
पूर्ण गम्भीर हँसी के साथ गोस्वामीजी कहने लगे, 'तब निर्वासन का बदला लिये बिना तुम कैसे मानोगे मंगल, अच्छी बात है, मैं शीघ्र प्रतिफल का स्वागत करता हूँ। किन्तु, मैं एक बात फिर कह देना चाहता हूँ कि मुझे व्यक्तिगत पवित्रता के उद्योग में विश्वास है, मैंने उसी को सामने रखकर उन्हें प्रेरित किया था। मैं यह न स्वीकार करूँगा कि वह भी मुझे न करना चाहिए था। किन्तु, जो कर चुका, वह लौटाया नहीं जा सकता। तो फिर करो, जो तुम लोगों की इच्छा!'
मंगल ने कहा, 'गुरुदेव, क्षमा कीजिये, आशीर्वाद दीजिए।'
अधिक न कहकर वह चुप हो गया। वह इस समय किसी भी तरह गोस्वामी जी से भारत-संघ का आरम्भ करा लिया चाहता था।
निरंजन ने जब वह समाचार सुना, तो उसे अपनी विजय पर प्रसन्नता हुई, दोनों उत्साह से आगे का कार्यक्रम बनाने लगे।
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai