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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


दूसरे दिन नया विज्ञापन लगा-

भारत संघ
वर्तमान कष्ट के दिनों में

श्रेणीवाद, धार्मिक पवित्रतावाद,
आभिजात्यवाद, इत्यादि अनेक रूपों में
फैले हुए सब देशों के भिन्न प्रकारों के जातिवाद की
अत्यन्त उपेक्षा करता है।
श्रीराम ने शबरी का आतिथ्य ग्रहण किया था,
बुद्धदेव ने वेश्या के निमंत्रण की रक्षा की थी;
इन घटनाओं का स्मरण करता हुआ
भारत-संघ मानवता के नाम पर
सबको गले से लगाता है!

राम, कृष्ण, और बुद्ध महापुरुष थे
इन लोगों ने सत्साहस का पुरस्कार पाया था
'कष्ट, तीव्र उपेक्षा और तिरस्कार!'
भारत संघ भी
आप लोगों की ठोकरों की धूल सिर से लगावेगा।


वृदावन उत्तेजना की उँगलियों पर नाचने लगा। विरोध में और पक्ष में-देवमन्दिरों, कुंजों, गलियों और घाटों पर बातें होने लगीं।

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