उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'तो क्या मैं यहीं बैठा रहूँ गाला। मैं इतना बूढ़ा नहीं हो गया!'
'नही बाबा! मुझे अकेली छोड़कर न जाया करो।'
'पहले जब तू छोटी थी तब तो नहीं डरती थी। अब क्या हो गया है, अब तो यह 'नये' भी यहाँ रहा करेगा। बेटी! यह कुलीन युवक जान पड़ता है।'
'हाँ बाबा! किन्तु यह घोड़ों का मलना नहीं जानता-देखो सामने पशुओं से इसे तनिक भी स्नेह नहीं है। बाबा! तुम्हारे साथी भी बडे निर्दयी हैं। एक दिन मैंने देखा कि सुख से चरते हुए एक बकरी के बच्चे को इन लोगों ने समूचा ही भून डाला। ये सब बड़े डरावने लगते हैं। तुम भी उन ही लोगों में मिल जाते हो।'
'चुप पगली! अब बहुत विलम्ब नहीं - मैं इन सबसे अलग हो जाऊँगा, अच्छा तो बता, इस 'नये' को रख लूँ न 'बदन गम्भीर दृष्टि से गाला की ओर देख रहा था।
गाला ने कहा, 'अच्छा तो है बाबा! दुख का मारा है।'
एक चाँदनी रात थी। बरसात से धुला हुआ जंगल अपनी गम्भीरता में डूब रहा था। नाले के तट पर बैठा हुआ 'नये' निर्निमेष दृष्टि से उस हृदय विमोहन चित्रपट को देख रहा था। उसके मन में बीती हुई कितनी स्मृतियाँ स्वर्गीय नृत्य करती चली जा रही थीं। वह अपने फटे कोट को टटोलने लगा। सहसा उसे एक बाँसुरी मिल गयी-जैसे कोई खोयी हुई निधि मिली। वह प्रसन्न होकर बजाने लगा। बंसी के विलम्बित मधुर स्वर में सोई हुई वनलक्ष्मी को जगाने लगा। वह अपने स्वर से आप ही मस्त हो रहा था। उसी समय गाला ने जाने कैसे उसके समीप आकर खड़ी हो गयी। नये ने बंसी बंद कर दी। वह भयभीत होकर देखने लगा।
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