उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
गाला ने कहा, 'तुम जानते हो कि यह कौन स्थान है?'
'जंगल है, मुझसे भूल हुई।'
'नहीं, यह ब्रज की सीमा के भीतर है। यहाँ चाँदनी रात में बाँसुरी बजाने से गोपियों की आत्माएँ मचल उठती हैं।'
'तुम कौन हो गाला!'
'मैं नहीं जानती; पर मेरे मन में भी ठेस पहुँचती है।'
'तब मैं न बजाऊँगा।'
'नहीं नये! तुम बजाओ, बड़ी सुन्दर बजती थी। हाँ, बाबा कदाचित् क्रोध करें।'
'अच्छा, तुम रात को यों ही निकलकर घूमती हो। इस पर तुम्हारे बाबा न क्रोध न करेंगे?'
'हम लोग जंगली हैं, अकेले तो मैं कभी-कभी आठ-आठ दस-दस दिन इसी जंगल में रहती हूँ।'
'अच्छा, तुम्हें गोपियों की बात कैसे मालूम हुई? क्या तुम लोग हिन्दू हो इन गूजरों से तो तुम्हारी भाषा भिन्न है।'
'आश्चर्य से देखती हुई गाला ने कहा, 'क्यों, इसमें भी तुमको संदेह है। मेरी माँ मुगल होने पर भी कृष्ण से अधिक प्रेम करती थी। अहा नये! मैं किसी दिन उसकी जीवनी सुनाऊँगी। वह...'
'गाला! तब तुम मुगलवानी माँ से उत्पन्न हुई हो।'
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