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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'अश्वारोही आ पँहुचे। उनमें सबसे आगे उमर में सत्तर बरस का वृद्ध, परन्तु दृढ़ पुरुष था। क्रूरता उसकी घनी दाढी और मूँछों के तिरछेपन से टपक रही थी। गाला ने उसके पास पहुँचकर घोड़े से उतरने में सहायता दी। वह भीषण बुड्ढा अपनी युवती कन्या को देखकर पुलकित हो गया। क्षण-भर के लिए न जाने कहाँ छिपी हुई मानवीय कोमलता उसके मुँह पर उमड़ आयी। उसने पूछा, 'सब ठीक है न गाला!'
'हाँ बाबा!'
बुड्ढे ने पुकारा, 'नये!'
युवक समीप आ गया। बुड्ढे ने एक बार नीचे से ऊपर तक देखा। युवक के ऊपर सन्देह का कारण न मिला। उसने कहा, 'सब घोडों को मलवाकर चारे-पानी का प्रबन्ध कर दो।'
बुड्ढे के तीन साथी और उस युवक ने मिलकर घोड़ों को मलना आरम्भ किया। बुड्ढा एक छोटी-सी मचिया पर बैठकर तमाखू पीने लगा। गाला उसके पास खड़ी होकर उससे हँस-हँसकर बातें करने लगी। पिता और पुत्री दोनों ही प्रसन्न थे। बुड्ढे ने पूछा, 'गाला! यह युवक कैसा है ?’
गाला ने जाने क्यों इस प्रश्न पर लज्जित हुई। फिर सँभलकर उसने कहा, 'देखने में तो यह बड़ा सीधा और परिश्रमी है।'
'मैं भी समझता हूँ। प्रायः जब हम लोग बाहर चले जाते हैं, तब तुम अकेली रहती हो।'
'बाबा! अब बाहर न जाया करो।'
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