उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'हम लोगों की पराधीनता से बड़ी मित्रता है नये! इसमें बड़ा सुख मिलता है। वही सुख औरों को भी देना चाहती हूँ - किसी से पिता, किसी से भाई, ऐसा ही कोई सम्बन्ध जोड़कर उन्हें उलझाना चाहती हूँ; किन्तु पुरुष, इस जंगली बुलबुल से भी अधिक स्वतन्त्रता-प्रेमी हैं। वे सदैव छुटकारे का अवसर खोज लिया करते हैं। देखा, बाबा जब न होता है तब चले जाते हैं। कब तक आवेंगे तुम जानते हो?'
'नहीं भला मैं क्या जानूँ! पर तुम्हारे भाई को मैंने कभी नहीं देखा।'
'इसी से तो कहती हूँ नये। मैं जिसको पकड़कर रखना चाहती हूँ, वे ही लोग भागते हैं। जाने कहाँ संसार-भर का काम उन्हीं के सिर पर पड़ा है! मेरा भाई? आह, कितनी चौड़ी छाती वाला युवक था। अकेले चार-चार घोड़ों को बीसों कोस सवारी में ले जाता। आठ-दस सिपाही कुछ न कर सकते। वह शेर-सा तड़पकर निकल जाता। उसके सिखाये घोड़े सीढ़ियों पर चढ़ जाते। घोड़े उससे बातें करते, वह उनके मरम को जानता था।'
'तो अब क्या नहीं है?'
'नहीं है। मैं रोकती थी, बाबा ने न माना। एक लड़ाई में वह मारा गया। अकेले बीस सिपाहियों को उसने उलझा लिया, और सब निकल आये।'
'तो क्या मुझे आश्रय देने वाले डाकू हैं?'
'तुम देखते नहीं, मैं जानवरों को पालती हूँ, और मेरे बाबा उन्हें मेले में ले जाकर बेचते हैं।' गाला का स्वर तीव्र और सन्देहजनक था।
'और तुम्हारी माँ?'
'ओह! वह बड़ी लम्बी कहानी है, उसे न पूछो!' कहकर गाला उठ गयी। एक बार अपने कुरते के आँचल से उसने आँखें पोंछी, और एक श्यामा गौ के पास जा पहुँची, गौ ने सिर झुका दिया, गाला उसका सिर खुजलाने लगी। फिर उसके मुँह से मुँह सटाकर दुलार किया। उसके बछड़े का गला चूमने लगी। उसे भी छोड़कर एक साल भर के बछड़े को जा पकड़ा। उसके बड़े-बड़े अयालों को उँगलियों से सुलझाने लगी। एक बार वह फिर अपने-पशु मित्रों से प्रसन्न हो गयी। युवक चुपचाप एक वृक्ष की जड़ पर जा बैठा। आधा घण्टा न बीता होगा कि टापों के शब्द सुनकर गाला मुस्कराने लगी। उत्कण्ठा से उसका मुख प्रसन्न हो गया।
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