उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'तो भी बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो हिन्दू धर्म में रहकर नहीं की जा सकतीं; किन्तु मेरे लिए नितान्त आवश्यक हैं।'
'जैसे?'
'तुमसे ब्याह कर लेना!'
यमुना ने ठोकर लगने की दशा में पड़कर पूछा, 'क्यों विजय बाबू! क्या दासी होकर रहना किसी भी भद्र महिला के लिए अपमान का पर्याप्त कारण हो जाता है?'
'यमुना! तुम दासी हो कोई दूसरा हृदय खोलकर पूछ देखे, तुम मेरी आराध्य देवी हो-सर्वस्व हो!' विजय उत्तेजित था।
'मै आराध्य देवता बना चुकी हूँ, मैं पतित हो चुकी हूँ, मुझे...'
'यह मैंने अनुमान कर लिया था, परन्तु इन अपवित्राओं में भी मैं तुम्हें पवित्र उज्ज्वल और ऊर्जस्वित पाता हूँ - जैसे मलिन वसन में हृदयहारी सौन्दर्य।'
'किसी के हृदय की शीतलता और किसी के यौवन की उष्णता-मैं सब झेल चुकी हूँ। उसमें सफल हुई, उसकी साध भी नहीं रही। विजय बाबू! मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूँ - है किसी के पास इतनी निःस्वार्थ स्नेह-सम्पत्ति, जो मुझे दे सके कहते-कहते यमुना की आँखों से आँसू टपक पड़े।
विजय थप्पड़ खाये हुए लड़के के समान घूम पड़ा, 'मैं अभी आता हूँ...' कहता हुआ वह घर से बाहर निकल गया।
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