उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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कई दिन हो गये, विजय किसी से कुछ बोलता नहीं। समय पर भोजन कर लेता और सो रहता। अधिक समय उसका मकान के पास ही करील की झाड़ियों की टट्टी के भीतर लगे हुए कदम्ब के नीचे बीतता है। वहाँ बैठकर वह कभी उपन्यास पढ़ता और कभी हारमोनियम बजाता है।
अँधेरा हो गया था, वह कदम्ब के नीचे बैठा हारमोनियम बजा रहा था। चंचल घण्टी चली आयी। उसने कहा, 'बाबूजी आप तो बड़ा अच्छा हारमोनियम बजाते है।' पास ही बैठ गयी।
'तुम कुछ गाना जानती हो?'
'ब्रजवासिनी और कुछ चाहे ना जाने, किन्तु फाग गाना तो उसी के हिस्से का है।'
'अच्छा तो कुछ गाओ, देखूँ मैं बजा सकता हूँ ।
ब्रजबाला घण्टी एक गीत सुनाने लगी-
'पिया के हिया में परी है गाँठ
मैं कौन जतन से खोलूँ
सब सखियाँ मिलि फाग मनावत
मै बावरी-सी डोलूँ!
अब की फागुन पिया भये निरमोहिया
मैं बैठी विष घोलूँ।
पिया के-'
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