उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'यह बात आज क्यों पूछती हो घण्टी! इसमें तुम्हारी क्या सम्मति है?' शान्त भाव से विजय ने कहा।
'इसका विचार तो यमुना को स्वयं करना चाहिए। मैं तो ब्रजवासिनी हूँ, हृदय की बंसी को सुनने से कभी रोका नहीं जा सकता।'
यमुना व्यंग्य से मर्माहत होकर बोली, 'अच्छा, भोजन कर लीजिए।'
विजय भोजन करने बैठा, पर अरुचि थी। शीघ्र उठ गया। वह लैम्प के सामने जा बैठा। सामने ही दरी के कोने पर बैठी यमुना पान लगाने लगी। पान विजय के सामने रखकर चली गयी, किन्तु विजय ने उसे छुआ भी नहीं, यह यमुना ने लौट आने पर देखा। उसने दृढ़ स्वर में पूछा, 'विजय बाबू, पान क्यों नहीं खाया आपने?'
'अब पान न खाऊँगा, आज से छोड़ दिया।'
'पान छोड़ने में क्या सुविधा है?'
'मैं बहुत जल्दी ही ईसाई होने वाला हूँ, उस समाज में इसका व्यवहार नहीं। मुझे यह दम्भपूर्ण धर्म बोझ के समान दबाये है, अपनी आत्मा के विरुद्ध रहने के लिए मैं बाध्य किया जा रहा हूँ।'
'आपके लिए तो कोई रोक-टोक नहीं, फिर भी।'
'यह मैं जानता हूँ, कोई रोक-टोक नहीं, पर मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि मैं कुछ विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ। इस विरुद्धता का खटका लगा रहता है। मन उत्साहपूर्ण होकर कर्तव्य नहीं करता। यह सब मेरे हिन्दू होने के कारण है। स्वतंत्रता और हिन्दू धर्म दोनों विरुद्धवाची शब्द हैं।'
'पर ऐसी बहुत-सी बातें तो अन्य धर्मानुयायी मनुष्यों के जीवन में भी आ सकती हैं। सबका काम सब मनुष्य तो नहीं कर सकते।'
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