ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
पशु कि हो पाषाण सब में नृत्य का नव छंद,
एक आलिंगन बुलाता सभा को सानंद।
राशि-राशि बिखर पड़ा है शांत संचित प्यार,
रख रहा है उसे ढोकर दीप विश्व उधार।
देखता हूं चकित जैसे ललित लतिका-लास,
अरुण घन की सजल छाया में दिनांत निवास-
और उसमें हो चला जैसे सहज सविलास,
मंदिर माघव-यामिनी का घोर-पद-विन्यास।
आह यह जो रहा सूना पड़ा कोना दीन-
ध्वस्त मंदिर का, बसाता जिसे कोई भी न-
उसी में विश्राम माया का अचल आवास,
अरे यह सुख नींद कैसी, हो रहा हिम-हास!
वासना की मधुर छाया! स्वास्थ्य, बल, विश्राम!
हृदय की सौंदर्य-प्रतिमा! कौन तुम छविधाम!
कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज,
कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर-खोज!
कुंद-मंदिर-सी हंसी ज्यों खुली सुषमा बाट,
क्यों न वैसे ही खुला यह हृदय रुद्ध-कपाट?''
कहा हंसकर ''अतिथि हूं मैं, और परिचय व्यर्थ,
तुम कभी उद्विग्न इतने थे न इसके अर्थ।
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