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कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9700
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आईएसबीएन :9781613014295 |
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
विश्व में जो सरल सुन्दर हो विभूति महान,
सभी मेरी है, सभी करती रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,
सिंधु लहरों-सा करें शीतल मुझे सब शांत।''
आ गया फिर पास क्रीड़ाशील अतिथि उदार,
चपल शैशव-सा मनोहर भूल का ले भार।
कहा ''क्यों तुम अभी बैठे ही रहे धर ध्यान,
देखती हैं आंख कुछ, सुनते रहे कुछ कान-
मन कहीं, यह क्या हुआ है? आज कैसा रंग?''
नत हुआ फण दृप्त ईर्षा का, विलीन उमंग।
और सहलाने लगा कर-कमल कोमल कांत,
देखकर वह रूप-सुषमा मनु हुए कुछ शांत।
कहा ''अतिथि! कहां रहे तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा कर रहा ज्यों बात-
किसी सुलभ भविष्य की, क्यों आज अधिक अधीर?
मिल रहा तुमसे चिरंतन स्नेह-सा गंभीर?
कौन हो तुम खींचते यों मुझे अपनी ओर!
और ललचाते स्वयं हटते उधर की ओर!
ज्योत्स्ना- निर्झर! ठहरती ही नहीं यह आंख,
तुम्हें कुछ पहचानने की खो गयी-सी साख।
कौन करुण रहस्य है तुममें छिपा छविमान?
लता-वीरुध दिया करते जिसे छायादान।
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