ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
चपल कोमल-कर रहा फिर सतत पशु के अंग,
स्नेह से करता चमर-उद्ग्रीव हो वह संग।
कभी पुलकित रोमराजी से शरीर उछाल,
सकल संचित-स्नेह देता दृष्टि-पथ से ढार।
और वह पुचकारने का स्नेह शबलित चाव,
मंजु ममता से मिला बन हृदय का सद्भाव।
देखते-ही-देखते दोनों पहुंच कर पास,
लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास।
वह विराग-विभूति ईर्षा-पवन से हो व्यस्त,
बिखरती थी और खुलते ज्वलन-कण जो अस्त।
किंतु यह क्या? एक तीखी घूंट, हिचकी आह!
कौन देता है हृदय में वेदनामय डाह?
''आह यह पशु और इतना सरल सुंदर स्नेह!
पल रहे मेरे दिए जो अन्न से इस गेह।
मैं? कहां मैं? ले लिया करते सभी निज भाग,
और देते फेंक मेरा प्राप्य तुच्छ विराग!
अरी नीच कृतघ्नते! पिच्छल-शिला-संलग्न,
मलिन काई-सी करेगी हृदय कितने भग्न?
हृदय का राजस्व अपहृत कर अधम अपराध,
दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध।
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