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कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9700
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आईएसबीएन :9781613014295 |
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
चलो, देखा वह चला आता बुलाने ओज-
सरल हंसमुख विधु जलद-लघु-खंड-वाहन साज!
कालिमा धुलने लगी घुलने लगा आलोक।
इसी निभृंत अनंत में बसने लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुसक्यान,
देखकर सब भूल जाएं दु:ख के अनुमान।
देख लो, ऊंचे शिखर का व्योम-चुंबन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का और होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में देख आवें आज,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, साधना का राज।''
सृष्टि हंसने लगी आंखों में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी, उड़ा सुमन-पराग।
और हंसता था अतिथि मनु का पकड़कर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पथ में, स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर सब सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव जागरण की रात।
आ रही थी मदिर भीनी मायवी की गंध,
पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु-अंध।
शिथिल अलसाई पड़ी छाया निशा की कांत-
सो रही थी शिशिर कण की सेज पर विश्रांत।
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