ई-पुस्तकें >> हौसला हौसलामधुकांत
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नि:शक्त जीवन पर 51 लघुकथाएं
विकलांगों को रोजगार के योग्य बनाना और उन्हें रोजगार उपलब्ध कराना हमारा नागरिक दायित्व है, शिक्षण प्रशिक्षण द्वारा पूर्ण कुशलता तो प्रदान नहीं की जा सकती, फिर भी आजीविका कमाने योग्य तो बनाया ही जा सकता है ताकि वे स्वयं को समाज का उपयोगी अंग समझें और उनके मन में भाईचारे की भावना पनपे। विकलांगों के लिए अनथक प्रयासों को देखकर सबल छात्रों में संवदेना का संचार होगा और भी विकलांग उपहास का पात्र नहीं रहेगा। विकलांगों को जीवन में संघर्ष करते देख सबलों में भी संघर्ष करने की शुद्ध भावना परिपुष्ट होगी। विकलांगों की हर संभव सहायता करके हम, उन्हें उनके अवहेलित अपमानित जीवन को मानसिक यंत्रणा की कारागार से मुक्त करा कर उनके मन में वास्तविक जीवन मूल्यों के प्रति सार्थक लगाव उत्पन्न करने में सफल होंगे।
हमारे आस-पास कार्यरत युवक-युवतियों ने अपनी विकलांगता को अभिशाप न मान, इसे वरदान में बदलने का माद्दा दिखाया। हादसे में हाथ-पैर खोकर, निष्क्रिय हो स्वयं को एक कोने में ढेर नहीं किया अपितु स्वयं की हस्ती में विश्वास जगाकर, संघर्ष के पथ पर दृढ़ता से कदम बढ़ा कर, अपने जीवन-पटल पर नई दास्तान लिख दी। 'दैनिक जागरण' में दिनांक 14 सितम्बर 2013 की 'संगिनी' के अंक में दर्ज उदाहरण हमारे सामने हैं- शालू गुप्ता (जम्मू) तथा बीना अरोड़ा (अमृतसर) ने हाथ गंवा कर और पटना की वैष्णवी ने पैर गंवाकर हार नहीं मानी, जीवन संघर्ष में अपने आपको आत्मनिर्भर बनाया और दूसरों को जीने की राह दिखाई। इनमें सबसे अद्वितीय साहस और जिजीविषा का प्रदर्शन अरूणिमा सिन्हा ने, एक कृत्रिम पैर के सहारे, माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहरा कर किया। इन वीरांगनाओं को कौन विकलांग कहेगा, जिन्होंने दुर्भाग्य से आ पड़े अधूरेपन को नकार कर विजय का पथ प्रशस्त किया।
रोहतक-124001
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