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हमारे बच्चे - हमारा भविष्य

स्वामी चिन्मयानंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9696
आईएसबीएन :9781613012673

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वर्तमान में कुछ काल और जुड़ जाने पर भविष्य बन जाता है। वर्तमान तथा कुछ समय ही भविष्य है।

अतः एक बच्चा ही देश के इतिहास की दिशा बदलने में समर्थ है। इसी प्रकार प्राचीन काल में शिवाजी. आइन्स्टीन, टैगोर, महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों का निर्माण हुआ था। बचपन से ही उनमें कोई विचार होने लगा ओर उसी दिशा में वे आगे बढ़ चले। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि उनकी महानता में या उन्होंने जो कुछ भला कार्य किया उसके लिए वे अपनी माताओं के ऋणी थे। उन्हीं की कृपा से वे महान् बन सके।

घर में केवल माता ही बच्चों को उच्च मूल्य और जीवन-आदर्शों की शिक्षा दे सकती है। वही बच्चों की चिन्तन धारा मोड़ सकती है। किन्तु जब मातायें घर छोड़ देती हैं और पेट पालना शुरू कर देती हैं तो आप उनसे क्या आशा करते हैं?

आप के बच्चे आप के भविष्य हैं और मातायें अपने बच्चों का निर्माण करती हैं उनके व्यक्तित्व को ढालती हैं। यदि माताये ही राक्षसी हो जाये तो भला बच्चों का भविष्य क्या बनेगा?

मैं जो कुछ कह रहा हूँ शायद आपको अच्छा न लगे, किन्तु मैं उस मंच से बोल रहा हूँ जहाँ सत्य ही कहना है। कोई भी अन्य व्यक्ति आप से ऐसा नहीं कहेगा क्योंकि वे सब वोट चाहते हैं। मैं आप से कोई वोट नहीं मांगता। मुझे आप से कुछ नहीं चाहिए।

इसलिए मित्रो! हम सब बैठ कर आपस में विचार करें कि सुन्दर भविष्य का निर्माण कैसे हो? हम देखते हैं कि आज के बच्चों का व्यक्तित्व समन्वित होने पर ही भविष्य उज्ज्वल बनेगा। वही कल के नेता होंगे। हम उनके हृदय में भव्य विचार भरें। लेकिन जब माता-पिता बच्चों की उपेक्षा करते हैं तो क्या होता है? हिटलर का कूर स्वभाव उसका एक उदाहरण है। वह कैसा कुटिल और दुर्दान्त बन गया। उसके कारण मनुष्य मात्र का चारित्रिक बल नष्ट हो गया। दूसरे महायुद्ध के बाद संसार में सर्वत्र अनैतिकता बढ़ चली। एक मोची का उपेक्षित पुत्र, बचपन का कटु जीवन जीकर ऐसा भयंकर शासक बन बैठा। संसार में उसने सर्वत्र विनाश-लीला फैला दी।

पौधा भी जब छोटा ही हो तो उसे सीधा उगना सिखाया जा सकता है। पौधे को तो जैसा चाहे मोड़ सकते हैं किन्तु वही जब बडा होकर वृक्ष बन जाता है तो उसे मोड़ा नहीं जा सकता। यदि पेड़ टेढ़ा हो गया, तो हो गया बस छुट्टी। अब केवल उसकी शाखायें काटी-छाँटी जा सकती हैं, उसके तने को मोड़ा नहीं जा सकता। इसी प्रकार जब तक बच्चे ६ से १२ वर्ष की आयु के बीच हैं उन्हें सिखाया जा सकता है। १२ से १८ वर्ष के बच्चों को भी किसी सीमा तक शिक्षा दी जा सकती है, किन्तु १८ वर्ष के बाद वह वृक्ष की भांति दृढ़ हो जाता है। अब उसे गर्म करके मुलायम बनावें तभी कोई परिवर्तन सम्भव है। युवावस्था से आगे बढ़ने पर उनके विचारों को बदलना इतना आसान नहीं रहता। वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति उनकी प्रवृत्ति और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बदलना कठिन है। इसलिए बचपन में ही कोई शिक्षा दी जा सकती है। मातायें ही उसके लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं।

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