आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
प्रवृतां यज्ञोपवीतिनीमभ्युदानायानयेत् सोमोऽददत् गंधर्वायेति।
अर्थात्- ''तत्पश्चात् उस कन्या को यज्ञोपवीत धारण कराके वस्त्रों से आच्छादित करके पति के समीप लावे और 'सोमोऽददत्', इस मंत्र को पढ़े। विवाह के समय यज्ञोपवीत धारण करने का यह विधान मौजूद है तो अन्य समय में फिर कैसे निषिद्ध ठहराया जा सकता है।'' यजुवेंदीय पारस्कर गुह्य सूत्र में ''स्त्रिय उपवीता अनुपवीताश्च'' इत्यादि वचन आते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में स्त्रियां यज्ञोपवीत पहने वाली और न पहनने वाली दोनों प्रकार की होती थीं।
शूद्राणानामदुष्चकर्मणामुपनयनम्।
इदञ्च रथकारस्योपनयनं।
अदुष्टकर्मणां शूद्राणामुपनयनम्।
अर्थात्- अदुष्ट काम करने वाले शूद्रों का उपनयन होना चाहिए। रथकार का उपनयन होना चाहिए।
अधिकार-अनधिकार के प्रश्न का समाधान यह है कि द्विजत्व के चिह्न जिसमें हैं जो यज्ञोपवीत की साधना का महत्व समझते हैं और हृदयंगम करके अपने जीवन को ऊँचा बनाना चाहते हैं उन्हें उसके धारण करने की अनुमति होनी चाहिए। जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में शूद्रत्व भरा हुआ है, वे उपवीत पहनकर उसे भी लज्जित न करें तो ठीक।
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