आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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कलकत्ता से आकर देवदास कुछ दिन इलाहाबाद रहे। उसी बीच उन्होंने चन्द्रमुखी को एक चिट्ठी लिखी-'बहू, मैंने विचार किया है कि अब किसी से प्रेम न करूंगा। एक तो प्रेम करके खाली हाथ लौटने से बड़ी यातना मिलती है, दूसरे इस संसार में प्रेम का पथ ही दुख और दैन्य से पूर्ण है।'
इसके उत्तर में चन्द्रमुखी ने क्या लिखा, इसके लिखने की यहां आवश्यकता नहीं है, पर इस समय देवदास मन-ही-मन केवल यही सोचते रहते थे कि एक बार उसका यहां आना ठीक होगा या नहीं?
दूसरे ही क्षण सोचते-'नहीं-नहीं, कोई काम नहीं है। यदि किसी दिन पार्वती सुन लेगी, तो क्या कहेगी? इस भांति कभी पार्वती और कभी चन्द्रमुखी उनके हृदय-आवास में वास करती थी। और कभी दोनों के ही सुख एक साथ उनके हृदय-पट पर अंकित होते थे...
हृदय ऐसा शून्य हो जाता था कि केवल एक निर्जीव अतृप्ति उनके हृदय में मिथ्या प्रतिध्वनि की भांति गूंज उठती थी। इसके बाद देवदास लाहौर चले गये। वहां चुन्नीलाल नौकरी करते थे, खबर पाकर भेंट करने के लिए आये। बहुत दिनों के बाद आज दोनों मित्र एक-दूसरे को देखकर लज्जित और साथ ही सुखी हए। फिर देवदास ने शराब पीना शुरू किया। चन्द्रमुखी की छाया उनके मन में बनी हुई थी, उसने शराब का निषेध किया था। सोचते, वह कितनी बड़ी बुद्धिमती है! कैसी धीरा और शान्त है, कितना उसका स्नेह है! पार्वती इस समय स्वप्नवत् विस्मृत हो रही थी - केवल बुझते हुए दीप के समान जब-तब उसकी स्मृति भभक उठती थी। परन्तु यहां की जलवायु उनके अनुकूल नहीं पड़ी। बीच-बीच में बीमार पड़ने लगे, छाती में फिर कड़क जान पड़ती थी। धर्मदास ने एक दिन रोते-रोते कहा-'देवता, तुम्हारा शरीर फिर गिर चला, इसलिए और कहीं चलो!'
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