आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने अनमने भाव से जवाब दिया-'अच्छा, चला जायेगा।'
देवदास प्राय: घर पर शराब नहीं पीते। किसी दिन चुन्नीलाल के आने पर पीते हैं और किसी दिन बाहर चले जाते हैं। रात के तीसरे-चौथे पहर घर लौटते थे और किसी-किसी दिन नहीं भी आते थे।
आज दो दिन से उनका पता नहीं है। मारे शोक के धर्मदास ने अब तक अन्न-जल भी नहीं ग्रहण किया। तीसरे दिन वे ज्वर लेकर घर लौटे। चारपाई पकड़ ली। तीन डॉक्टरों ने आकर चिकित्सा आरम्भ की।
धर्मदास ने पूछा-'देवदास, काशी में मां को यह खबर भेज दूं?'
देवदास ने तत्काल बाधा देकर कहा-'छि-छि:! मां को क्या यह मुंह दिखाने लायक है?'
धर्मदास ने इसके प्रतिवाद में कहा-'रोग-शोक तो सभी को होते हैं, पर क्या इसी से इतने बड़े दुख को मां से छिपाया जा सकता है? तुम्हें कोई लज्जा नहीं है देवदास, काशी चलो।'
देवदास ने मुंह फिराकर कहा-'नहीं धर्मदास, इस समय उनके पास नहीं जा सकूंगा। अच्छा होने के बाद देखा जायेगा।'
धर्मदास ने मन में सोचा कि चन्द्रमुखी की चर्चा करे, किन्तु वह स्वयं ही उससे इतना घृणा करता था कि यह विचार उठने पर भी वह चुप ही रहा। देवदास की चन्द्रमुखी को बुलाने की स्वयं भी इच्छा होती थी, पर कह कुछ नहीं सकते थे। अस्तु, कोई आया नहीं। कुछ दिन के बाद धीरे-धीरे आरोग्य होने लगे। एक दिन उन्होंने धर्मदास से कहा- 'अगर तुम्हारी इच्छा हो तो चलो इस बार और कहीं चला जाये' इस समय और कहीं चलने की जरूरत नहीं है, अगर हो सके तो घर चलो, नहीं तो मां के पास चलो।'
माल-असबाब बांधकर चुन्नीलाल से विदा लेकर देवदास फिर इलाहाबाद चले आये। शरीर इस समय भली-भांति अच्छा हो गया था।
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