आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
चन्द्रमुखी भीतर-ही-भीतर रो पड़ी, दिल बड़ा छोटा हो गया, मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी- 'भगवान! किसी काल या किसी जन्म में अगर इस पापिष्ठा का प्रायश्चित हो जाय तो मुझे इन्हें ही पुरस्कार में देना!
दो महीने बीत गये। देवदास आरोग्य हो गये, पर अभी शरीर नहीं भरा। वायु-परिवर्तन आवश्यक था। कल पश्चिम की ओर जायेंगे, साथ में केवल धर्मदास रहेगा। चन्द्रमुखी ने देवदास का हाथ पकड़कर कहा-'तुम्हें एक दासी भी तो चाहिए-मुझे साथ लेते चलो।'
देवदास ने कहा- 'छि:! यह क्या हो सकता है? और जो चाहे सो करूं, परन्तु इतनी बड़ी निर्लज्जता नहीं कर सकता।'
चन्द्रमुखी चुप हो रही। वह अबूझ नहीं है, सब बातें सहज ही समझ गयी, और जो हो, पर इस संसार में उसका सम्मान नहीं है, उसके रहने से देवदास की अच्छी सेवा होगी, सुख मिलेगा, किन्तु कहीं भी सम्मान नहीं मिलेगा। आंख पोंछकर कहा-'अब फिर कब देख सकूंगी?' देवदास ने कहा-'यह नहीं कह सकता। चाहे कहीं भी होऊं, परन्तु तुम्हें भूलूंगा नहीं, तुम्हें देखने की तृष्णा कभी मिटेगी नहीं।'
प्रणाम करके चन्द्रमुखी अलग खड़ी हो गयी। मन-ही-मन कहा- यही मेरे लिए यथेष्ट है, इससे अधिक आशा करना व्यर्थ है।'
जाने के समय देवदास ने चन्द्रमुखी के हाथ में और दो हजार रुपये रखकर कहा-'इन्हें रखो। मनुष्य के शरीर का कोई विश्वास नहीं है, पीछे तुम दुख-सुख में किसके आगे हाथ पसारोगी?'
चन्द्रमुखी ने इसे भी समझा, इसी से रुपया ग्रहण कर लिया। आंसू पोंछकर पूछा-'तुम एक बात मुझे बताते जाओ।'
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