आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'यदि इच्छा ही है तो कहो। किन्तु यह इच्छा कैसी, यह तो कहो!'
'नहीं, कारण मत पूछो।'
चन्द्रमुखी ने सिर नीचा करके कहा-'अच्छी बात है, यही सही।'
देवदास ने बहुत देर तक चुप रहने के बाद हठात् गम्भीर भाव से पूछा-'अच्छा बहू, तुम मेरी कौन हो, जो इतने प्राणपण से मेरी सेवा करती हो?'
चन्द्रमुखी न तो लज्जाशील वधू ही है और न बातचीत में अनभ्यस्त बालिका; देवदास के मुख की ओर स्थिर-शान्त दृष्टि रखकर स्नेह-जड़ित कंठ से कहा-'तुम मेरे सर्वस्व हो, क्या यह अब भी नहीं समझ सके?'
देवदास दीवाल की ओर देख रहे थे। उसी ओर देखते हुए धीरे-धीरे कहा-'यह सब समझता हूं, किन्तु इससे आनन्द नहीं मिलता। पार्वती को मैं कितना प्यार करता था और वह भी मुझे कितना प्यार करती थी, पर इससे अन्त में मिला कष्ट ही। बहुत दुख पाने पर सोचा था कि अब कभी प्रेम के फंदे में पांव नहीं दूंगा। जानते हुए दिया भी नहीं। परन्तु तुमने यह क्या किया? जोर देकर फिर उसमें मुझे क्यों फंसाया?- यह कहकर कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा-'बहू, जान पड़ता है, तुम भी पार्वती की भांति दुख उठाओगी।'
चन्द्रमुखी मुख पर आंचल देकर चारपाई के एक ओर चुपचाप बैठी रही। देवदास ने फिर मृदु-कंठ से कहना आरम्भ किया-'तुम दोनों में कितनी विषमता है। एक कितनी अभिमानिनी और उद्धत है और दूसरी कितनी शांत और कितनी संयम है। वह कुछ भी नहीं सह सकती और तुम कितना सहती हो! उसका कितना यश और कितना नाम है और तुम कितनी कलंकिता हो! सभी उसे प्यार करते हैं, पर तुम्हें कोई प्यार नहीं करता! फिर मैं प्यार करता हूं -'कैसे करता हूं!'- कहकर एक दीर्घ निःश्वास फेंककर फिर कहा-'पाप-पुण्य के विचारकर्ता तुम्हारा कैसा विचार करेंगे, यह नहीं कह सकता, पर मृत्यु के बाद यदि मिलन होगा तो मैं तुमसे कभी दूर नहीं रहूंगा।'
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