आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश के सम्मान से बैठाने पर भी वे अड़कर खड़े ही रहे, बोले-'मैं तो सेवक हूँ आपका!'
रमेश उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध हो गया। एक तो उनकी उमर आदर के योग्य और फिर शिक्षक! फिर भी इस प्रकार दबना और डरना देख, रमेश ताज्जुब में पड़ गए।
खड़े-खड़े ही उन्होंने कहा-'इस स्कूल की नींव मुकर्जी और घोषाल बाबू की कोशिश से रक्खी गई थी। आसपास में यही एक छोटा-सा स्कूल है। करीब तीस-चालीस विद्यार्थी हैं इसमें। कुछ तो दो-तीन कोस दूर के गाँव से पढ़ने आते हैं। थोड़ी-सी सरकारी सहायता मिलने के कारण स्कूल चल नहीं पा रहा है। अगर अभी से छप्पर छाने का इंतजाम नहीं हुआ, तो बरसात में तो वहाँ बैठा ही नहीं जा सकता! खैर, बरसात के दिन अभी दूर हैं, और तब तक छप्पर तो बाद में छवाया जा सकता है। अभी तो विकट समस्या है कि सभी शिक्षकों की तीन-तीन महीने की तनख्वाह बाकी है। अब भला कहाँ तक कोई अपनी गाँठ का खा कर, काम कर सकता है?'
स्कूल की दशा का वर्णन सुन कर रमेश खड़ा हो गया। उसे दुख हुआ कि कभी उसने प्राथमिक शिक्षा वहीं पाई थी। उन्हें बैठक में ले जा कर उसने विस्तार से हाल पूछा।
स्कूल में चार शिक्षक कार्य करते हैं, जिनकी अथक मेहनत के फलस्वरूप ही हर वर्ष दो विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो सके हैं। विद्यार्थियों के नाम, गाँव का पता वगैरह वे इस तरह कह गए, मानो सब याद रखा हो। लड़कों से प्राप्त फीस से नीचे के दो मास्टरों का वेतन तो चल जाता है, और सरकारी सहायता से एक तीसरे मास्टर का वेतन निकल आता है। अब रहा चौथा, सिर्फ उसी के लिए आस-पास के गाँव से चंदा उगाहना होता है, जिसे भी मास्टरों को ही करना होता है। मगर पिछले चार महीने से द्वार-द्वार भटक कर, कुल सवा सात रुपए वसूल कर पाए हैं।
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