आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
स्कूल की रामकहानी सुन कर रमेश स्तब्ध रह गया। उन्हें सबसे बड़ा ताज्जुब इस बात पर था कि इतने गाँवों के बीच एक स्कूल होते हुए भी, चार महीनों की दौड़-धूप में वसूल हो पाए तो कुल सवा सात रुपए! पूछा उसने-'आपका वेतन क्या है?'
'कागज पर तो मिलते हैं छब्बीस रुपए; हाथ पड़ते हैं कुल तेरह रुपए पंद्रह आने ही!'
कुछ न समझ सकने के कारण रमेश उनके मुँह की तरफ ताकने लगा। मास्टर साहब भी समझ गए कि बाबू समझ नहीं पाए। तभी विस्तार से बोले-'लिखा-पढ़ी में तो छब्बीस ही वेतन दिखाया जाता है, क्योंकि वह कागजात डिप्टी साहब को दिखाने होते हैं। और सरकारी हुक्म भी है कि वेतन छब्बीस रुपया होना चाहिए! ऐसा न करें, तो सरकारी सहायता बंद हो जाएगी, यह बात तो जग जाहिर है! विद्यार्थी जानते हैं, किसी से पूछ देखिएगा!'
कुछ देर चुप रहने के बाद रमेश ने पूछा-'तो इस तरह विद्यार्थियों के सामने आपकी क्या इज्जत रहती होगी?'
मास्टर साहब ने शरमाते हुए कहा-'पर वेणी बाबू तो इतना भी देने में अलकसाते हैं।'
'तो स्कूल के कर्ता-धर्ता वे ही जान पड़ते हैं।'
मास्टर साहब ने सकुचाते हुए दबी जबान में कहा-'वेणी बाबू मंत्री तो हैं, पर पैसा कभी नहीं देते! स्कूल चल रहा है, तो बस यह मुकर्जी की कन्या की कृपा से। पहले तो उन्होंने भी कहा था कि इस वर्ष छप्पर छवा देंगे, पर अब उन्होंने हाथ खींच-सा लिया है, न जाने क्यों?'
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