आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
बनर्जी ने आगे को गरदन झुका कर कहा-'आखिर मामला क्या है? किसी से जबरदस्ती पैसा लेना है यह तो! जरा देखूँ तो।' उसने बढ़ कर खुद एक मुट्ठी नमक निकाल कर पुड़िया में रख लिया और लोटा उठा कर, रमेश की तरफ देख कर हँसते हुए कहा-'चलिए, बातचीत होती चलेगी! रास्ता एक ही है, हमारा-आपका।'
रमेश भी चलने को उठ गया और जब दोनों चलने लगे, तब मधु ने एक ओर उतरे-से मुँह से कहा-'वे आटे के पैसे क्या बनर्जी महाशय...?'
बीच में बनर्जी ने नाराजगी के स्वर में, पीछे को मुड़ कर कहा-'उन ससुरों के चक्कर में पड़ कर तो कलकत्ता जाने-आने में मेरे पाँच रुपए का खून हो गया, फिर भी तुम्हें अपने तकाजे की पड़ी है! इसी को कहते हैं कि किसी का तो सब लुटा और किसी को अपनी पड़ी है! रमेश भैया! देखा, इन लोगों का रवैया। अरे भाई, जब आ ही गया हूँ, तो अब सवेरे-शाम मिलते रहेंगे, फिर बड़बोंग काहे की है?'
मधु सहम गया, धीरे से बोला-'काफी दिन तो...।'
'तो क्या? यों पीछे पड़ कर तो तुम सब जने, मेरा गाँव में रहना ही मुहाल कर दोगे!' कह कर मुँह फुलाते हुए, बनर्जी अपना सामान उठा कर चलते बने।
और रमेश वहाँ से चल कर सीधे अपने मकान पर पहुँचा। वहाँ उसने एक भद्र पुरुष को हुक्का पीते बैठा देखा, जो उन्हें देखते ही हुक्का रख कर खड़ा हो गया और झुक कर प्रणाम कर बोला-'मैं आपके स्कूल में हेडमास्टर हूँ और बनमाली पांडे मेरा नाम है! दो बार पहले भी आपके दर्शन को आ चुका हूँ, पर दर्शन न मिल सके थे।'
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