आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
मधु ने चिलम भर कर, बनर्जी के हाथ में हुक्का दे कर कहा-'हाँ, तो फिर कोई काम-धंधा लगा या नहीं!'
'लगता क्यों नहीं! भाड़ तो झोंका ही नहीं मैंने। पढ़ना-लिखना भी जानता हूँ। पर भैया, घर से बाहर निकलते ही, घोड़ागाड़ी के नीचे दबने से बचकर घर लौट आओ तो समझो कि बुजुर्गों की और अपनी बड़ी किस्मत है!'
मधु अपना गाँव छोड़ कर सिर्फ एक बार गवाही देने के लिए मेदिनीपुर तक जरूर गया था, वरना गाँव के बाहर उसने कभी कुछ देखा ही नहीं था। तभी उसे बनर्जी की बातों पर घोर विस्मय हुआ। बोला-'कहते क्या हैं आप?'
बनर्जी ने थोड़ा मुस्करा कर कहा-'झूठ है या सच, अपने रमेश बाबू से ही पूछ देखो! और अब तो कोई लाख क्यों न कहे, चाहे यहाँ भूखों मरना पड़े, पर अब गाँव छोड़ कर बाहर नहीं जाने का! वहाँ तो साग-पात, धनिया-मिर्च, सभी खरीद कर ही खाने को मिलते हैं। खा सकते हो भला तुम उन्हें खरीद कर? मैं नहीं खा सका, तभी एक महीने में ही बीमार डाँगर की तरह हो गया हूँ। पेट में रात-दिन गुड़-गुड़ होती ही रहती है, कलेजे में भी एक जलन-सी मची रहती है। जैसे-तैसे जान बचाई है, यहाँ आ कर! यहाँ मुझे भीख माँग कर भी बच्चों का पेट भरना मंजूर है, पर वहाँ वापस जाना नहीं! ब्राह्मणों को भीख माँगने में कोई दोष भी नहीं है!'
अपनी कहानी और उसे कहने के ढंग से सुनने वालों को चकित कर, बनर्जी महाशय उठ कर तेल के बर्तन के पास पहुँचे, और परी से कोई छ्टाँक भर तेल निकाल, नाक-कान में डाल और शेष सिर पर मलकर बोले-'अब नहा-धो कर घर चलूँ, अबेर हो रही है। मधु, जरा नमक तो देना एक पैसे का। पैसा अभी नहीं है। तीसरे पहर दूँगा।' मधु ने नमक देने के लिए उठते हुए कहा-'वही फिर देने की बात टाल बताई!'
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