आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
बनर्जी ने गुस्से से मुँह बिचका कर, इधर-उधर देख कर कहा-'उसके ढाई पैसे चाहिए, तो क्या उसके लिए हाथ पकड़ेगी मेरा, सबके सामने! टट्टी-फरागत हो कर नदी से लौटा, तो सोचा कि हाथ धोता चलूँ! वह डलिया में मछली लिए बैठी थी। मेरे पूछने पर साफ मना कर दिया कि सब बिक गईं। पर मुझे अंधा थोड़े ही बना सकती थी! मैंने डलिया में जैसे हाथ डाला कि उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। भला बताओ तो सही, क्या मैं उसके पहले के ढाई पैसे और आज का मिला कर साढ़े तीन पैसे के लिए गाँव छोड़ कर चला जाऊँगा?'
'भला कहीं गाँव छोड़ा जा सकता है, उसके पैसों के लिए!'
'अब इस गाँव में कुछ दबदबा भी रहा है क्या? इसी बात पर उसके यहाँ का सारा काम...धोबी-हज्जाम सब बंद करा दिए जाते, घर उजाड़ दिया जाता, तो उसकी अकल ठिकाने आ जाती!'
तब एकाएक रमेश पर नजर पड़ते ही मधु से उन्होंने पूछा कि ये कौन हैं!
'छोटे बाबू के लड़के हैं! उस दिन सौदे के दस रुपए बाकी रह गए थे, सो खुद ही देने चले आए हैं।'
'रमेश भैया हैं क्या? बड़ी उमर हो तुम्हारी! भैया, आते ही सुना कि छोटे बाबू का ऐसे ठाठ से श्राद्ध किया कि इधर किसी ने कभी देखा-सुना भी नहीं! पर मैंने आँख से न देखा, यही दुख है। मैं तो किस्मत का मारा, साले दो-चार आदमियों के बहकाने में आ कर, नौकरी करने कलकत्ता चला गया था। सो, यह हालत हो गई है। यहाँ क्या किसी भले आदमी का गुजारा है भला?'
रमेश ने कोई उत्तर न दिया और बैठा रहा। दुकान पर और भी जो लोग बैठे थे, उनकी कलकत्ता की बातें सुनने के लिए वे व्यग्र हो उठे।
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