आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
उसके बाद सारा काम शांति से समाप्त हो गया और सभी आमंत्रित ब्राह्मण, अपने कुनबे-पड़ोस के सच्चे-झूठे नाम गिना कर, उनके नाम से खाने-पीने का सामान बाँध कर चलने लगे। रमेश बाहर अमरूद के पेड़ के नीचे, उदास-चिंत्त, विचारमग्न खड़ा था। उसने देखा कि दीनू भट्टाचार्य अपने बालगोपालों के साथ चले जा रहे हैं, सभी के हाथों और बगल तथा कंधों पर भोजन की सामग्री बँधी लटक रही थी। वे रमेश की नजर बचा कर निकल जाना चाहते थे, पर उनकी मुनिया रमेश को देख कर सहमी-सी बोल पड़ी-'बाबूजी खड़े हैं, बाबा!'
रमेश ने मुनिया के स्वर से ही उनके दिल की बात समझ ली। रमेश को अगर कहीं स्वयं ही छिपने ही जगह होती तो छिप जाता, पर कहीं कोई स्थान था नहीं। तभी विवश हो कर उनके सामने आ कर हँसते हुए बोले-'किसके लिए प्रसाद ले जा रही हो, मुनिया?'
मुनिया के पास अनेक छोटी-बड़ी पोटलियाँ थीं। दीनू जानते थे कि मुनिया ठीक उत्तर न दे सकेगी, अतः सकुचा कर स्वयं बोले-'पास-पड़ोस में नीच कौम के बच्चे हैं-जूठन लिए जा रहा हूँ, उन बेचारों को बाँट दूँगा। पर रमेश भैया, सच जानो-आज जाना कि बड़ी माँ जी जग माँ जी हैं!'
रमेश ने उत्तर न दिया, चुपचाप फाटक तक साथ चला आया। वहाँ आ कर एकाएक उन्होंने प्रश्नच किया- 'भट्टाचार्य जी, यह बताइएगा कि यहाँ आपस में मनमुटाव क्यों है। आप तो सब जानते होंगे!'
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