आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश उनके साथ काफी दूर तक गया और रास्ते में बोला-'दया बनाए रखिएगा भट्टाचार्य जी मेरे ऊपर जरा...कहते संकोच-सा मालूम होता है, पर अगर मेरे घर में हरिधान की माँ के चरण पड़ते, तो मैं अपने को धन्य समझता!'
दीनू ने एकदम रमेश के दोनों हाथ थाम लिए और कोमल स्वर में बोला-'रमेश भैया! नाहक मुझे क्यों लज्जित करते हो! मैं दीन ब्राह्मण हूँ किस योग्य!'
और वे अपने सब बालगोपालों के साथ घर चले गए। रमेश भी लौट कर आ गया। जाते समय वह गोविंद से कुछ कटु शब्द कह गए थे, उनकी याद आते ही वह कुछ कहना चाहता था, पर गोविंद ने बीच में ही कहना शुरू कर दिया। बोले-'भैया रमेश! तुम हमें जब बुलाते तभी हम आते और सारा काम आप ही करते। अपना ही काम है यह तो!'
धर्मदास, जो अब तक हुक्का ही गड़गड़ा रहे थे, अब लाठी के सहारे खड़े हो कर खाँसते-खाँसते बोले-'वेणी नहीं हैं हम लोग कि जिसकी पैदाइश का ही नहीं पता! समझे कि नहीं?'
रमेश को धर्मदास की इस भोंडी-गंदी बात ने तिलमिला दिया, पर कुछ कहा नहीं उसने। अब तक वह यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि अशिक्षित होने के कारण ही, जो मुँह में आता है, बिना सोचे-समझे ये लोग बक देते हैं।
जब सब चले गए, तो रमेश ने वेणी बाबू के पास जाने की सोची। ताई जी का आग्रह अब तक उसके मन में घुमड़ रहा था। वेणी बाबू के चंडी मंडप में जब वे पहुँचे, तब रात के आठ बजे थे। अंदर से, किसी बात पर घोर विवाद की आवाज सुनाई पड़ रही थी। सबसे तीव्र स्वर गोविंद गांगुली का था। वे पूरे दावे के साथ कह रहे थे-'वेणी बाबू, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मरते समय तारिणी बाबू ने एक पैसा भी नहीं छोड़ा था और यह जो इतना ठाठ-बाट हो रहा है, तो निश्च य जानो कि रमेश ने नंदी की कोठी से, कुछ नहीं तो तीन हजार रुपए तो कर्ज काढ़ा ही है! देखना, हम सबके देखते-ही-देखते, चार दिन में सारी शान न किरकिरी हो जाए तो कहना! भई, जितनी चादर हो, उतना ही पैर पसारना चाहिए, नहीं तो बदन तो उघरेगा ही!'
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