आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'गोविंद चाचा, तो फिर पक्का पता लगाना चाहिए इस बात का।'-वेणी के स्वर में उत्साह था।
'देखते चलो! इस बार उस घर में अच्छी तरह मैं स्थान तो बना लूँ, तब फिर...बाहर कौन खड़ा है? रमेश भैया? अरे वाह, इतनी रात गए बाहर? हम सब मर गए थे क्या?'
रमेश ने उनको तो कुछ उत्तर दिया नहीं, आगे बढ़ कर वेणी से कहा-'मैं आपके ही पास आया हूँ, बड़े भैया!'
वेणी तो हक्का-बक्का हो गए, बोल ही न सके। गोविंद ने ही तुरंत उत्तर दिया-'हम तो इसीलिए इनको समझाने आए थे कि भाई, तारिणी भैया का झगड़ा उनके साथ रहा, सो वह उनके साथ ही खतम हो गया-अब तो मेल हो जाए तुम दोनों में, तो हम सबको वह शुभ घड़ी देख कर आँखें ठण्डी करने का अवसर मिले! हमें तो आशा थी कि तुम आओगे ही! बड़े भाई भी तो पिता के समान होते हैं...हालदार मामा, तुम्हारी क्या राय है?...पर आप खड़े क्यों हैं अभी तक? बैठिए न, अरे है कोई, एक कम्बल या आसन ला कर बिछा दे यहाँ? वेणी बाबू, आप बड़े भाई लगते है, आप ही इस तरह अलग-अलग रहेंगे, तो फिर काम नहीं चलने का! और फिर अब तो बड़ी माता जी भी वहाँ हो आई हैं, फिर आपको अब क्या...?'
सहसा वेणी चकित रह गए, पूछा-'अम्मा गई थीं क्या वहाँ?'
गोविंद तो चाहते ही थे कि वे चौंकें। अपनी बात का ठीक असर देख प्रसन्न हुए, पर उस भाव को छिपा कर विस्तार से बोले-'गई ही नहीं हैं, बल्कि भीतर का सारा काम-धंधा और भण्डार का चार्ज भी ले लिया है उन्होंने। और न लेतीं, तो और कौन आता सम्हालने, भाई?'
किसी ने कुछ भी नहीं कहा। गोविंद ने ही दीर्घ नि:श्वाभस लेकर कहा-'गाँव भर में उन जैसा तो कोई है नहीं! और न यही आशा है कि कभी हो भी सकेगा। कहोगे कि ठकुरसुहाती कह रहा हूँ-पर बात सच है कि बड़ी माँ जी लक्ष्मी हैं पूरी! सबको ऐसी माँ मिलने का सौभाग्य नहीं होता।' और दीर्घ नि:श्वाहस छोड़ शांत हो गए।
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