आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश को अब गुस्सा आ गया था और बेचारे दीनू तो मारे लज्जा के और भी दीन हुए जा रहे थे।
रमेश ने गोविंद को रोक दिया, नहीं तो और भी जाने क्या-क्या उनकी जुबान से निकल सकता था। जरा तेज स्वर में बोला-'हर किसी का बेकार अपमान करने की आपकी यह क्या आदत है गांगुली जी!'
गोविंद चौंक पड़े और तुरंत ही संयम में हो, जबरदस्ती की हँसी हँसते हुए बोले-'अपमान तो मैंने भैया किसी का नहीं किया। जो कहा है, वह सच कहा है। कोई सवा हाथ तो मैं डेढ़ हाथ! अरे तुम्हीं देखो धर्मदास भैया, इस ब्राह्मण की गुस्ताखी!'
गोविंद की इस ढिठाई पर रमेश दंग रह गया। उसके उस चेहरे की तरफ देख कर दीनू ने स्वयं ही कहा-'रमेश भैया! जग जाहिर है कि मेरे पास न खेत है न मकान। गरीब ब्राह्मण हूँ। भिक्षावृत्ति पर ही जीवन चलता है, मेरा व मेरे परिवार का। कभी-कभी ऐसा अवसर मिलता है कि बच्चों को अच्छी चीज खिला सकूँ, जब कभी बड़े आदमियों के यहाँ कोई बड़ा काम होता है। तारिणी भैया का तो नियम ही था, हम लोगों को खिलाने-पिलाने का-और मैं निश्चिोत कह सकता हूँ कि हम लोगों के भरपेट खाने से उनकी आत्मा को खुशी होगी!' कहते-कहते उनके दीन नेत्रों में आँसू भर आए। अपने मैले दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछ कर वे आगे बोले-'भैया, मैं नहीं, मुझ जैसे सभी आस-पास के जितने भी गरीब हैं, कभी तारिणी भैया के दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटे! किसी को कानो-कान भी खबर न हो पाती थी। यहाँ तक कि उनका बायाँ हाथ भी उसे नहीं जान पाता था। अच्छा, अब चला-आप लोगों का समय अब और नष्ट न करूँगा। मुनिया! ओ हरिधान! चलो, अब घर चलें। कल सवेरे फिर आएँगे। भैया! तुमसे कुछ कहने लायक तो हूँ ही क्या, पर सदैव मेरा यह आशीर्वाद है कि अपने पिता ही की तरह होओ-और खूब लंबी उमर हो तुम्हारी!'
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