आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'हाँ!'
'सुना है, भण्डार की ताली भी अपने साथ लेती गई हैं।'
रमेश ने बिना बोले ही सिर हिला कर उसका उत्तर दे दिया। वैसे तो उन्होंने ताली दे कर जाने को कहा था, पर चलते समय न जाने क्यों अपने साथ ही लेती गई।
'क्यों धर्मदास, क्या कहा था न मैंने! सच ही निकली मेरी बात! रमेश भैया, तुम समझे इसका मतलब?'-गोविंद बोले।
रमेश को गोविंद की बात बुरी लगी, पर समय का विचार कर कुछ कहना ठीक नहीं समझा। दीनू भट्टाचार्य अभी तक मौजूद थे। वे अजीब भोंदू किस्म के आदमी थे, तभी तो बिना लिहाज के, मय बालगोपालों के, भरपेट मिठाई चढ़ा गए थे। वे आशीर्वाद देने का अवसर पाए बिना जा कैसे सकते थे। अब अवसर पा कर बोले-'इसका मतलब समझना क्या मुश्किल है? वे रंग-ढंग समझती हैं, तभी ताली अपने साथ लेती गई हैं।'
दीनू की इस बात ने गोविंद के आग लगा दी। तुनक कर बोले-'तुम बिना समझे-सोचे हर बात में टाँग क्यों अड़ा दिया करते हो? क्या समझो तुम, इन सब बातों को?'
गोविंद की डाँट से वह और मुँहफट हो कर बोले-'वाह, बात ही ऐसी कौन-सी टेढ़ी है इसमें, जो समझ में न आए! सीधी-सी तो बात है कि बड़ी माता जी आ कर, भण्डार का ताला बंद कर, ताली बंद कर, ताली अपने साथ लेती गई हैं।'
'तुम्हारे आने का काम तो पूरा हो गया-अब तुम घर जाओ, बस! अब तो घर भर ने मिल कर खूब भरपेट खा भी लिया और खूब बाँध भी लिया, अब और क्या काम बाकी है तुम्हारा? रहा खीरमोहन, सो अब उसे परसों ही खाना। अब और कुछ नहीं मिलने का!'-गोविंद ने कहा।
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