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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689
आईएसबीएन :9781613014455

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास

3

'ताई जी!'-रमेश ने पुकारा।

उस समय वे भण्डार में थीं। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई। वेणी को देखते हुए उनकी उम्र पचास साल के करीब होनी चाहिए। वैसे उनके गठे शरीर को देख कर तो वे चालीस के लगभग जान पड़ती थीं। आज उनका रंग साफ और गोरा था। उनकी जवानी में, उनकी सुंदरता की दूर-दूर तक चर्चा थी और वह सौंदर्य आज भी, शरीर के गठन के साथ बना हुआ था। बाल उनके विधवाओं की तरह कटे हुए थे, जिनकी छोटी -छोटी घुँघराली लटें माथे पर आ कर उनकी सुंदरता को बढ़ा रही थीं। अंग-प्रत्यंग, चिबुक, होंठ, कपोल, सारे के सारे उनकी सुंदरता के प्रमाण बने थे। उनकी आँखें तो मानो रस में डूबी हुई थीं। रमेश उनकी छवि की तरफ एकटक देखता रहा।

ताई जी और रमेश की माँ में बड़ी घनिष्ठता थी। काफी दिनों तक दोनों के कोई संतान नहीं हुई थी। सास-ननद के तानों से तंग आ कर दोनों साथ बैठ कर रोई थीं और तभी पहली बार, एक ही दुख से दुखी होने के नाते, दोनों में प्रेम का सूत्रपात हो गया, जो अंत तक बना रहा। रमेश को भी वह विशेषतः प्यार करती थी।

आज एक अरसे के बाद जब रमेश की माँ अपनी देवरानी के भण्डार में गई, तभी से अपने हाथ से सँजो कर रखे गए सामान को देख, देवरानी की याद आ गई और उनकी आँखों से आँसू बह निकले।

दोनों के घर में आपसी मनमुटाव काफी दिनों पहले से चला आ रहा था। यहाँ तक कि मुकदमेबाजी तक की नौबत आ जाती थी और वही मनमुटाव अब तक भी न टूटा था।

रमेश की आवाज सुन कर, वे अपनी गीली आँखें पोंछ, बाहर निकलीं। उस समय उनकी आँखें लाल हो रही थीं और उनमें विषाद की आभा झलक रही थी, जिसे देख रमेश चकित-सा खड़े रह गया। ताई जी का दिल भी रमेश के लिए भर आया-जिसके न माता थी न पिता। पर अपने को संयत रख हँसते हुए बोलीं-'पहचान लिया मुझे, बेटा रमेश?'

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