आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
4 पाठकों को प्रिय 80 पाठक हैं |
ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
जब रमेश की माँ का देहांत हो गया था, तब इन्हीं ताई जी ने उसे अपनी छाती से लगा कर पाला था और जब तक वह अपने मामा के घर नहीं गया था, तब तक इन्हीं के प्यार में उसका शरीर बढ़ा था, पर कल जब वह इन्हीं ताई जी के घर मिलने गया, तो उन्होंने 'घर पर नहीं हैं' कह कर टलवा दिया था और उसके बाद मौसी ने वेणी के सामने और उसके पीछे भी, उसका घोर अपमान किया था। तब उसके टूटे दिल से एक आह निकली थी-'मेरा यहाँ कोई नहीं है!' पर आज उन्हीं ताई जी को अपने आप आ कर भण्डार की कुंजी सम्हालते देख, वे विस्मय से चित्र लिखे-से खड़ा उनकी तरफ देखते रहे।
उनको इस तरह खड़ा देख कर विश्वेश्वरी ताई जी ने कहा -'बेटा! ऐसे मौकों पर दिल कमजोर करने से काम नहीं चलता।'
विश्वेश्वरी के स्वर में उन्हें कोमलता का तनिक आभास नहीं मिला। वे कल के उनके व्यवहार से उनका प्यार उमड़ता देख, रूठने का-सा उपक्रम कर रहे थे। पर तुरंत ही उन्होंने अनुभव कर लिया कि यहाँ इससे काम नहीं चलने का। जहाँ किसी को किसी पर रूठने का अधिकार होता है, वहाँ निभाव भी होता है। अन्यथा और विशेष कष्ट ही होता है। उसने जरा तुनक कर कहा-'मेरा जी कमजोर नहीं, ताई जी! मैं तो तब जो बन पड़ता, आप ही कर लेता-फिर तुम्हारे आने की क्या जरूरत थी?'
वे फिर मृदु हँसी हँस पड़ीं। बोलीं-'तुम मुझे बुला कर लाए होते, तो तुम्हारे सवाल का जवाब देती! सो, तुम तो बुला कर लाए नहीं! वैसे यह सुन लो कि जब तक सारा काम नहीं हो जाता, अंदर के सब काम मेरे ऊपर रहेंगे। भण्डार से भी सब चीजें यों ही नहीं निकलेंगी। रोज जाते समय, उसमें ताला डाल कर ताली तुम्हें सहेज जाया करूँगी और आते समय ले लूँगी, रोज-समझे? अच्छा! क्या उस रोज वेणी से मुलाकात हुई थी?'
|