आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
यह कह उनके हाथ में हुक्का थमा दिया। दीनू भट्टाचार्य जी बैठ गए और हुक्के से दो-तीन सूखे कश खींचे, पर वह तो पहले ही जल चुका था। बोले-'भाई मैं तो गया बाहर, तुम्हारे ससुर के घर-तुम्हारी बहू को लेने। कहाँ हैं, रमेश भैया? रास्ते भर सुनता आया हूँ बड़ाई। खाने-पीने के बाद, जाते समय सबको सोलह-सोलह पूड़ियाँ चार-चार संदेश ऊपर से दिए जाएँगे।'
धीरे से गोविंद ने बात पूरी की-'इसके अलावा एक-एक धोती भी मिलने की आशा है! मैंने तो कहा था न तुमसे कि वैसे तुम बुजर्गों के आशीर्वाद से, काम तो सब चौकस किया जा रहा है, पर वेणी भी अपनी कसर नहीं उठा रख रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ा है! मेरा-रमेश का खून एक है, नहीं तो वेणी ने मुझ पर भी डोरे खूब डाले। दो-दो बार आदमी भेज कर बुलवा चुका है और तुम हुए, धर्मदास भैया हुए, सो भी पराए थोड़े ही हो, अपने ही हो। अबे षष्टीचरण! जा, चिलम तो भर ला। भैया रमेश! जरा सुनना तो, एक बात कहनी है तुमसे।'
और रमेश को एक तरफ ले जा कर गोविंद गुपचुप बोले-'धर्मदास की औरत अंदर आ गई है क्या? होशियार रहना भैया। उसके हाथ कुछ सौंप न देना! वहाँ का सारा घी, आटा, तेल, नमक आधा-आधा साफ गायब कर देगी। मैं अभी जा कर तुम्हारी मामी को ले आता हूँ। चिंता मत करो किसी बात की! सारा प्रबंध आ कर सम्हाल लेगी। जरा-सा तिनका भी कहीं इधर का उधर जो हो जाए, मजाल है!'
रमेश सिर हिला कर चुप हो गया, किंतु उसे विस्मय यह सोच कर हुआ कि धर्मदास की बहुत धीरे-से कही हुई, अपनी स्त्री को भेज देने की बात गोविंद ने कैसे भाँप ली।
जब ये बातें चल रही थीं, तभी दो नंगे-धड़ंगे लड़के आ कर दीनू के कंधों से लिपट कर कहने लगे-'हम संदेश खाएँगे, बाबा!'
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