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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

बाईस

वापसी के बाद

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कौन-सी थी वह बात, जो मुझे स्वीकार करनी ही है? गुरु चैतन्यानन्द जी कैसा आदेश देने जा रहे हैं मुझे? आशंका और मजबूरी के पैने दाँत मैं अपने सीने पर गड़ते महसूस कर रहा था।

'सुरेश!' गुरुदेव ने कहा, ''तुम सत्य की खोज में निकले हो न? ''

''जी, लेकिन... मैं सिद्धियों की खोज में निकला हूँ...। '' मैंने साहस कर कहा।

''सिद्धियाँ सत्य का ही एक रूप है और मैंने सत्य तुम्हें दे दिया है।'' गुरुदेव की गम्भीरता बढ़ गई. ''मानवता ही सबसे बड़ा सत्य है। उसकी खोज करो, उसे अंगीकार करो। मानवता को ही अपना ईश्वर, अपना धर्म मानो। तुम्हें किसी भी अन्य ईश्वर की, अन्य धर्म की आवश्यकता नहीं रहेगी।''

''किन्तु...... सिद्धियाँ.......।''

''क्या मानवता से बड़ी सिद्धि कोई हो सकती है? मानवता को साध लो। किसी अन्य सिद्धि को साधने की आवश्यकता नहीं रहेगी।''

मेरे पास उत्तर नहीं था।

''सुरेश! जिन चमत्कारपूर्ण सिद्धियों के फेर में तुम पडे हो, उन्हीं सिद्धियों के पीछे मैंने तो अपना सारा जीवन झोंका है। अनेक सिद्धियाँ मेरे नियन्त्रण में भी आई हैं। इसके बावजूद........ आज मैं यही कहूँगा......... किसी सिद्धि में कुछ नहीं धरा है। सारा मर्म केवल मानवता में है। आत्म-बल में है। आत्म-सम्मान में है। आत्म-मूल्यांकन में है। मेरा यही सन्देश लेकर तुम समाज में जाओ। अन्ध-विश्वासों के भँवर में फँसे लागों को बताओ कि सच्चाई क्या है, सच्ची राह क्या है। सुरेश! यह कार्य तुम अधिक दक्षता से कर सको, इसके लिए मैं तुम्हें कल्पना-योग की दीक्षा दूँगा। कल्पना-योग कोई तान्त्रिक साधना नहीं है। उसमें कोई मन्त्र नहीं है, चमत्कारिक सिद्धि नहीं है। वह केवल एक जीवन-पद्धति है। तुम उसे अपनाओ, ताकि अधिकतम मानव बन सको और दूसरों को भी अधिकतम मानव बना सको। तुम्हारे माध्यम से मैं इसी कार्य को सम्पन्न करना चाहता हूँ। मेरा तो अब अन्त समय निकट है....... अपनी जिम्मेदारियाँ मुझे किसी-न-किसी को तो सौंपनी ही हैं। तुमसे बेहतर माध्यम मुझे और कहाँ मिलेगा? ''

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